SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की स्थापना की गई। उनके प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्त हुए, द्वितीय पट्टधर आचार्य हरिदत्त सूरि जी, तृतीय पट्टधर आचार्य समुद्र सूरि जी हुए। पार्श्वनाथ जी का शासन सबसे कम वर्षों तक चला। उनके चौथे पट्टधर आचार्य केशी श्रमण ने भगवान् महावीर द्वारा संस्थापित शासनधर्मसंघ में सम्मिलित हो पंच महाव्रतों की उपसंपदा ग्रहण की एवं भगवान् महावीर की परम्परा में समाहित हो गए। तात्पर्य यह कि भगवान् महावीर के जिन-शासन में वर्तमान में उनकी पाट परम्परा प्रवहमान है। - धर्मसंघ स्थापना : तीर्थंकर नामकर्म के सुप्रभाव से तीर्थंकर परमात्मा नियमपूर्वक तीर्थ की स्थापना करते हैं। 'तारयते इति तीर्थम्' जो आत्मा को इस भवसागर से तिराने का सामर्थ्य रखता है, उसे तीर्थ कहा गया है। मानव जीवन में माँसाहार, जुआ, शिकार, बलात्कार, हत्या, चोरी आदि पापों का सेवन करने से आत्मा निस्संदेह रूप से दुर्गति में ही जाती है। जीवन के सद्गुणों व सदाचार का पालन ही शुभ परिणाम देता है। तीर्थंकर परमात्मा को जब केवलज्ञान प्रकट होता है, तब भूत-भविष्य-वर्तमानऊर्ध्वलोक-मध्यलोक- अधोलोक आदि विश्व का अनंत ज्ञान उन्हें होता है। वे जब संसार के दुख और सिद्धत्व के सुख से साक्षात्कार करते हैं, तो उन्हें प्राणीमात्र के प्रति अपार करुणा और असीम दया का अनुभव होता है। वे स्वयं तो मोक्षगामी ही होते हैं किंतु अन्य मानव किस प्रकार से इस संसार सागर से तिर सकें, इस भाव से वे तीर्थ की स्थापना करते हैं। वे एक ऐसी व्यवस्था को जन्म देते हैं ताकि उनके बाद भी धर्म की प्रवृत्ति सदा गतिमान रहे। श्री भगवतीसूत्र की टीका में कहा है - 'तित्थं पुण चाउवन्नाइन्ने समणसंघो समण, समणीओ, सावया, सावियाओ।' सर्वविरति यानि सभी पापों के त्यागी एवं दीक्षित श्रमण (साधु) एवं श्रमणी (साध्वी)। देशविरति यानि स्थूल पापों के त्यागी एवं श्रमण-श्रमणी वर्ग के उपासक श्रावक एवं श्राविका। यह चतुर्विध संघ ही तीर्थ है। श्रमण भगवान् महावीर ने वैशाख शुक्ला 11, ईसा पूर्व 557 (विक्रम पूर्व 500) के दिन चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। इन्द्रभूति गौतम आदि को उन्होंने दीक्षित कर सर्वविरति धर्म प्रदान किया। चन्दनबाला भी प्रभु चरणों में दीक्षित होकर साध्वी समुदाय की अग्रणी बनी। उसके बाद हजारों नर-नारियों ने प्रभु वीर से श्रावक धर्म के व्रत अंगीकार किए। तीर्थंकर परमात्मा viii
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy