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कि तभी अपनी शीतल वाणी में प्रभु ने कहा हे सुधर्म ! तुम्हारे मन में यह शंका है कि प्रत्येक जीव जैसा इस भव में है, क्या मरने के बाद भी वैसा ही होगा? अपनी इस शंका को तुम कुतर्कों से शान्त करने में असफल रहते हो। लेकिन यह सत्य नहीं! प्रत्येक जीव मनयोग-वचनयोग-काययोग से जैसा कर्म करता है, वैसे ही अच्छी-बुरी गति, रूप, ऐश्वर्य, आयु आदि को प्राप्त होता है । वेद में भी लिखा है - ' शृगालो वै जायते यः स पुरुषो दह्यते' यानि जो पुरुष जलता है, वह पुरुष मरकर सियार बनता है । अतः तुम अपनी इस शंका का त्याग करो। "
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. भगवान् महावीर की अमोघ वाणी को सुनकर आर्य सुधर्म के मन
प्रभु के प्रति प्रगाढ़
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श्रद्धा उत्पन्न हुई। वैशाख शुक्ला 11, वि. पू. 500 के दिन 50 वर्ष की आयु में सुधर्म ने प्रभु वीर के पास दीक्षा ग्रहण की। उनके साथ उनके 500 शिष्यों ने भी दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार 11. ब्राह्मणों ने 4400 शिष्यों के साथ सर्वविरति श्रमण व्रत स्वीकार किया एवं प्रभु वीर ने जिनशासन की स्थापना इस दिन की । मध्यम पावा (पावापुरी) के महासेन उद्यान में 24वें तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी तीर्थ (चतुर्विध संघ) की स्थापना की। इस अवसर पर इन्द्र महाराज रत्नथाल में वासक्षेप लेकर हाज़िर हुए। भगवान् ने मुट्ठी भर कर 11 गणधरों को गण की अनुज्ञा प्रदान करके वासक्षेप डाला तथा तीर्थ स्थापना की। अनुश्रुति है कि सबको एक बार किंतु सुधर्म स्वामी को दो बार वासक्षेप प्रदान किया
एक दीक्षा का और एक प्रथम पट्टधर होने का ।
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शासन प्रभावना :
तपाए हुए सोने के समान तेजोमयी लालिमा से युक्त देह कान्ति के धनी सुधर्म स्वामी जी अतुल बल, अदम्य विनय, अथाह गांभीर्य और शान्ति क्षमा के दूत थे। दीक्षोपरान्त गणधर तीर्थंकर प्रभु से प्रश्न करते हैं- भंते! किम् तत्तं ? " यानि प्रभु तत्त्व क्या है? तब प्रभु के मुखारविंद से निकले - उपन्नेइ वा ( उत्पाद), विगमेइ वा (व्यय), धुवेइ वा (ध्रौव्य) 'उपन्नेइ वा' यानि सब उत्पन्न होता है। 'विगमेइ वा' यानि सब नष्ट होता है। 'धुवेइ वा' यानि सब स्थिर (निश्चल) रहता है। संसार में द्रव्यों के अनेक धर्मों की ऐसी अनेकांतमयी व्याख्या सुनकर गणधर भगवंतों की बीजबुद्धि लब्धि ( अर्थात् एक पद से सभी पदों का ज्ञान होना) के आधार पर दो घड़ी (48 मिनट) में श्रुत साहित्य का आधार - द्वादशांगी व पूर्वो की सूत्र रूप में रचना करते हैं।
महावीर पाट परम्परा
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