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में जो जैसा होता है, वह परभव में भी क्या वैसा ही होता है? लेकिन अपने अहं के कारण उन्होंने कभी यह किसी से नहीं पूछा।
मध्यम पावा में एक ओर महायज्ञ का आयोजन हो रहा था, दूसरी ओर राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त, अनन्त केवलज्ञान के धारक, 34 अतिशयों से युक्त श्री महावीर स्वामी जी देवताकृत समवसरण में अविरल मधुर धारा में उपदेश गंगा प्रवाहित कर रहे थे। उसे सुनने के लिए वैमानिक देवता आकाश में देव दुंदुभि बजाते हुए आ रहे थे। उस दुंदुभि का नाद सुनकर यज्ञ कर रहे ब्राह्मण अत्यंत हर्षित होकर सोचने लगे कि हमारे यज्ञमंत्र से प्रभावित होकर देवता भी आ रहे हैं, लेकिन देवता यज्ञमंडप छोड़कर श्री महावीर के समवसरण की ओर चले गए। यह देखकर सभी अपमानित महसूस करने लगे। वे विचार-मंत्रणा करने लगे कि इस मध्यम पावा नगरी में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जिसका प्रभाव हमारे पवित्र मन्त्रोच्चारण से भी अधिक है। और जिसको वंदन करने अनेकानेक देवी-देवता देवलोक से इस पृथ्वी पर आए हैं।
__ यह देख इन्द्रभूति गौतम आदि ब्राह्मण अभिमान सहित क्रोधित हो गए। 'मेरे अलावा सर्वज्ञ कौन हो सकता है, अभी उसे शास्त्रार्थ में पराजित करके आता हूँ' इस भाव के साथ इन्द्रभूति गौतम प्रभु वीर को परास्त करने गए, किन्तु करुणानिधान तीर्थंकर महावीर के ज्ञान के तेज से इन्द्रभूति गौतम उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। अपने 500 मेधावी शिष्यों के साथ उनसे प्रतिबोधित होकर वहीं दीक्षित हो गए। जब इन्द्रभूति की दीक्षा की बात अन्यों ने सुनी, तो अग्निभूति समवसरण में गया। वह भी प्रभु से प्रतिबोधित होकर दीक्षित हो गया। इसी प्रकार वायुभूति और अव्यक्त भी दीक्षित हो गए। जब चार-चार तेजस्वी ब्राह्मण अपनी शिष्य संपदा सहित 'महावीर' के चरणों में दीक्षित होने के लिए दृढ़संकल्पी हो गए, यह समाचार सुनकर सुधर्म ब्राह्मण भी क्रोधित हो गए। उन्हें लगा कि यह महावीर कोई इन्द्रजालिया है, कोई पाखंडी है, जिसने इंद्रभूति आदि को फंसा लिया है। अतः उसे परास्त करने के लिए मुझे जाना ही चाहिए। सुधर्म स्वामी अपने 500 शिष्यों के साथ महावीर स्वामी जी के समवसरण में गए।
प्रभु महावीर की अत्यंत सौम्य मुखाकृति को देखकर ही सुधर्म भाव विह्वल हो गए। समवसरण में अतिशयों से विभूषित भगवान् महावीर को देखकर वे स्तब्ध रह गए। उन्होंने मन में सोचा कि मैंने वादी तो कई देखे लेकिन ऐसा तेजस्वी वादी कहीं नहीं देखा। वे विचारने लगे - "क्या ये ब्रह्मा है? नहीं! वे हंसवाहन हैं। क्या ये विष्णु हैं? नही! वे चक्रधारी हैं। क्या ये इन्द्र हैं? नहीं! क्या ये कामदेव हैं? नहीं!" वे इस प्रकार का चिंतन कर रही रहे थे
महावीर पाट परम्परा