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1. पंचम गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी
“संयम सूर्य श्री सुधर्म स्वामी, ज्ञानरश्मि दातार।
स्थापनाचार्ये नित्य वंदिए, नित् वंदन बारम्बार॥" मुनियों के समूह को गण कहते हैं। तीर्थंकर के प्रधान शिष्य जो साधुओं के समूह (गण) का नेतृत्त्व करते हैं, उन्हें गणधर कहते हैं। प्रभु महावीर के 11 गणधर थे। उनमें पाँचवे गणधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी उनके प्रथम पाट पर स्थापित हुए। वर्तमान में प्राप्त संपूर्ण श्रुत साहित्य-आगम-ग्रंथ शास्त्रों के बीजरूप 11 अंग की संपदा उन्हीं की देन है। जन्म एवं दीक्षा :
विदेह प्रदेश के अंतर्गत कोल्लाग सन्निवेश में धम्मिल नामक ब्राह्मण एवं भद्दिला ब्राह्मणी रहते थे। विक्रम पूर्व 550 (ईस्वी पूर्व 607) में उनके घर पुत्ररत्न का जन्म हुआ जिसका नाम 'सुधर्म' रखा गया। भगवान् महावीर की तरह ही आर्य सुधर्म का जन्म नक्षत्र भी उत्तराफाल्गुनी
और जन्म राशि कन्या थी, जो संभवतः उनकी दीर्घकालीन शिष्य व श्रुत परम्परा का द्योतक है। उनका पारिवारिक गौत्र अग्नि वैश्यायन था। ___ सुधर्म वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान बने। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र और पुराण, इन 14 विद्याओं में वे पारंगत बन गए। उनके पास 500 शिष्य अध्ययन करते थे। उनकी विद्वत्ता सर्वविख्यात थी। मगध और विदेह देश के भू-भाग में उनकी प्रसिद्धि यशस्वी ब्राह्मणों में होती थी। उनके मुख पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था। ज्ञान की भांति उनका रूप भी उन्हें सबसे भिन्न बनाता था। ___ एक बार सोमिल नामक ब्राह्मण ने मध्यम पावा नगर में महायज्ञ अनुष्ठान आयोजित किया और भिन्न-भिन्न स्थानों के 11 महापंडितों को आमंत्रित किया। इन्द्रभूति गौतम, वायुभूति गौतम, अग्निभूति गौतम, व्यक्त, सुधर्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास जैसे वैदिक कर्मकाण्डों के महाप्रभावक 11 विद्वान उस यज्ञ में सम्मिलित होने पधारे। यूँ तो सुधर्म ब्राह्मण अत्यंत विद्वान थे, लेकिन फिर भी उनके मन में एक जिज्ञासा थी कि इस भव
महावीर पाट परम्परा