________________
भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही उनके 9 गणधर मोक्ष पद को प्राप्त चुके थे। जिस-जिस का निर्वाण होता गया, उनकी शिष्य संपदा ( गण ) सुधर्म स्वामी जी के गण में सम्मिलित होती गयी। करीब 30 वर्ष तक सुधर्म स्वामी जी को भगवान् महावीर की छत्रछाया प्राप्त हुई। दीपावली की जिस रात्रि को भगवान महावीर मोक्ष पद को प्राप्त हुए, उसी समय गणधर गौतम भी केवल ज्ञान को प्राप्त हुए। यानि प्रभु वीर के निर्वाण पश्चात् सिर्फ गौतम स्वामी जी और सुधर्म स्वामी जी ही जीवित रहे किंतु यह शाश्वत नियम है कि शासन का संवहन छद्मस्थ ही करते हैं।
अतः कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि. पू. 470 ( ईस्वी पूर्व 527) के दिन सुधर्म स्वामी जी भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर बने। इस समय उनकी आयु 80 वर्ष की थी।
आचार्य सुधर्म का तत्कालीन राजवंशों को जिन धर्म के अनुयायी बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान था। सम्राट श्रेणिक का पुत्र मगध नरेश कोणिक उनका परम भक्त था। जिस दिन सुधर्म स्वामी ने वीर शासन का दायित्व संभाला, उसी दिन अवन्ति का शासन चंडप्रद्योत के पुत्र पालक ने संभाला। वह भी सुधर्म स्वामी जी से अत्यंत प्रभावित था । पालक के छोटे भाई गोपालक ने सुधर्म स्वामी जी के पास मुनि दीक्षा ग्रहण कर आत्मसाम्राज्य प्राप्त किया। अनुश्रुति अनुसार उन्होंने अनेक प्रतिमाओं की अंजनश्लाका प्रतिष्ठा की थी, जो भद्रेश्वर, जीरावला, कुमारगिरि पर्वत आदि तीर्थों में विराजमान हुई ।
साहित्य रचना :
संपूर्ण जैन शासन आचार्य सुधर्म स्वामी जी का अनंत आभारी है। तीर्थंकर महावीर ने अपने ज्ञान गंगा के प्रवाह में जो उपदेशित किया, वह सभी गणधरों ने शब्दों - सूत्रों के रूप में रचा । शब्दों की अपेक्षा से भिन्न हो जाने पर भी सबका भाव समान होता है। दीर्घजीवी गणधर
धर्म प्रभु वीर के प्रथम पट्टधर बने । अतः उनके द्वारा प्रदत्त वाचना ही आज चलकर हमारे पास आई है। उनके द्वारा सूत्रबद्ध 12 'अंग' और 14 'पूर्व' रचनाओं में से केवल 11 अंग ही आज हमारे पास उपलब्ध हैं। उनका परिचय इस प्रकार है
1)
आचारांग सूत्र - इसमें श्रमण निर्ग्रन्थ ( साधु-साध्वी जी ) के आचरण विषयक, विनय, स्वाध्याय, प्रतिलेखना, गोचरी, वस्त्र, तपस्या, पात्र आदि विषयों का सूक्ष्म प्रतिपादन किया हुआ है।
महावीर पाट परम्परा
8