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हुए आचार्य रत्नशेखर सूरि जी एवं आचार्य उदयनंदि सूरि जी ने मेवाड़ के मज्जापद्र (मजेरा) में वि.सं. 1508 में आचार्य पद प्रदान किया। उनका नाम 'आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि' रखा गया एवं इस महोत्सव का संपूर्ण लाभ संघपति भीम श्रावक ने लिया ।
आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी का व्यक्तित्त्व अत्यंत शांत था। किसी भी प्रकार की कलह, राजनीति इत्यादि से वे दूर रहते थे। वि.सं. 1517 में पूज्य श्री के गच्छनायक बनने पर खंभात नगर में रत्नमंडन सूरि जी व सोमदेव सूरि जी ने गच्छभेद कर लिया व अलग-अलग पक्ष बना लिये। सबको एक करने के महनीय प्रयास लक्ष्मीसागर सूरि जी ने किए । आचार्य रत्नशेखर सूरि जी के कालधर्म उपरांत ईडर के सेठ श्रीपाल और वड़नगर के सेठ महादेव ने विशाल उत्सव करके संघ की आज्ञा व साक्षी से तपागच्छ का नायकत्व प्रदान किया एवं उपस्थित आचार्य उपाध्याय - पंन्यास - मुनि- महत्तरा - प्रवर्तिनी - साध्वीजी - श्रावक-श्राविका आदि संघ ने उन्हें 'युगप्रधान ' की संज्ञा से अभिहित किया । आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी महाराज की वाणी मध ता से परिपूर्ण थी एवं उनका मुख तपस्या के तेज से ओत-प्रोत था ।
गुजरात, मारवाड़ आदि क्षेत्रों में योग्य समय विचरण करने से बहुत श्रीमंत श्रावक इनके भक्त बने एवं इनके करकमलों से प्राण-प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य कराए । आचार्यश्री जी के उपदेशों से प्रेरित होकर गिरिपुर ( डुंगरपुर) के उपकेश जाति के श्रावक शाह साल्ह ने 120 मण पीतल की जिनमूर्ति बनवाकर आचार्यश्री जी से प्रतिष्ठा कराई। मांडवगढ़ के निवासी संघपति चंद्रसाधु (चांदा शाह) ने 72 काष्ठमय ( लकड़ी के ) जिनालय एवं धातु के 24 तीर्थंकरों के पट्ट आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी की प्रेरणा से बनवाए । अन्यान्य जगहों पर प्रतिष्ठा तथा प्रतिबोध करते हुए शासन की प्रभावना करते हुए वे विचरते रहे।
साहित्य रचना :
वर्तमान समय में आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी की एक कृति मिलती है - 'वस्तुपाल रास' जो भाषा, व्याकरण, प्रामाणिकता, परिपूर्णता की दृष्टि से एक सुन्दर रचना मानी जाती है। इनके सदुपदेश से अहमदाबाद के एक गृहस्थ ने प्रज्ञापना सूत्र की प्रतिलिपि तैयार की थी।
संघ व्यवस्था :
आचार्य श्री लक्ष्मीसागर सूरि जी की आज्ञा में हजारों साधु-साध्वी जी का विशाल संघ
महावीर पाट परम्परा
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