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45. आचार्य श्रीमद् देवेन्द्र सूरीश्वर जी
सरल प्रतिबोधक, सुंदर लेखक, सरस व्याख्याकार । चारित्र धनी देवेन्द्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार ॥
जैनदर्शन सम्मत कर्मवाद सिद्धांत के तत्त्व - निष्णात् आचार्यों में शासननायक भगवान महावीर के 45वें पट्टविभूषक आचार्य देवेन्द्र सूरि जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे अद्वितीय प्रतिबोध शक्ति एवं विशुद्ध चारित्र के धनी थे। विजय चंद्र सूरि जी से गच्छभेद होने पर भी संवेगी व क्रियाप्रवर्तक रहकर उन्होंने अपने गुरु द्वारा प्रदत्त दायित्व का वहन किया ।
जन्म एवं दीक्षा :
आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी के सांसारिक अग्रज पूर्णदेव के पौत्र देवसिंह ने उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर आत्मकल्याणार्थ शैशव - अवस्था में उनके पास दीक्षा ग्रहण की। जगच्चंद्र जी ने बालवय में दीक्षा देकर मुनि देवेन्द्र को विद्याध्ययन कराया। मुनि श्री प्रतिभा सम्पन्न थे। ज्ञानार्जन उनका ध्येय बन गया एवं जिज्ञासापूर्ति करते-करते वे व्याकरण, काव्य, तत्त्व, इतिहास आदि साहित्य - पठन में प्रवीण बने ।
शासन प्रभावना :
आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी के क्रियोद्धार में पग-पग मुनि देवेन्द्र विजय उनके साथ रहे। मुनिराज की दर्शन की दिव्यता, ज्ञान की गंभीरता एवं चारित्र की चमक देखते हुए जगच्चंद्र सूरि जी ने उन्हें सूरिमंत्र प्रदान कर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। वे आचार्य देवेन्द्र सूरि के नाम से प्रख्यात हुए।
एक उल्लेखानुसार जगच्चन्द्र सूरि जी ने कालधर्म से कुछ माह पूर्व ही मुनि देवेन्द्र को उपाध्याय पदवी प्रदान की थी एवं आचार्यश्री के कालधर्म पश्चात् संघ के जगच्चन्द्र जी की भावना अनुरूप उपाध्याय देवेन्द्र को आचार्य पदवी प्रदान की ।
मेवाड़ का राणा जैत्रसिंह, राणा तेजसिंह - रानी जयलता (जयतल्ला) देवी, राणा समरसिंह इत्यादि इनके अनन्य भक्त थे। देवेन्द्र सूरि जी के सदुपदेश से रानी जयलता देवी ने चित्तौड़
महावीर पाट परम्परा
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