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के किले में शामलिया पार्श्वनाथ का जिनमंदिर बनवाया। राणा तेजसिंह ने भी आचार्यश्री की प्रेरणा से अपने अधिकार क्षेत्र में कत्ल खाने बंद कर अमारिपालन (अहिंसा धर्म) का आयोजन कराया। अपने गुरुदेव के साथ देवेन्द्र सूरि जी ने शत्रुंजय, गिरनार, आबू आदि यात्राएं की।
आचार्य देवेन्द्र सूरि, आचार्य विजयचंद्र सूरि, उपाध्याय देवभद्र गणी आदि साधुओं का फाल्गुन बदि 13 शनिवार वि. सं. 1301 के दिवस पालनपुर में भव्यतिभव्य प्रवेश हुआ। वहाँ आसदेव श्रावक से उपासक दशांग सूत्र की वृत्ति लिखवाई |
उज्जैन में सेठ जिनभद्र के पुत्र वीर धवल के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं कि देवेन्द्र सूरि जी का वहाँ आगमन हुआ । वीरधवल को विवाहोत्सव के दौरान भी वैराग्य का उपदेश देवेन्द्र सूरि जी ने दिया। वीरधवल ने अत्यंत हिम्मत का सिंचन कर विवाह नहीं किया और देवेन्द्र सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। उसका नाम मुनि विद्यानंद विजय रखा गया। उसका छोटा भाई भी श्रमणधर्म में उनके पास दीक्षित हुआ व उसका नाम मुनि धर्मकीर्ति विजय रखा गया । वि.सं. 1304 में दोनों मुनिभगवंतों को गणि पद प्रदान किया गया।
आचार्य देवेन्द्र सूरि जी तथा आचार्य विजय चंद्र सूरि जी की प्रेरणा से महुवा में वि.सं. 1309 में सरस्वती ग्रंथ भंडार बनवाया । इसके पश्चात् आचार्यश्री जी ने गुजरात से मालवा की ओर विहार किया एवं 12 वर्ष तक वहाँ शासन की प्रभावना की ।
पालनपुर के संघ की विनती को स्वीकार करते हुए वि.सं. 1322 में वे पालनपुर पधारे एवं पल्लवीया पार्श्वनाथ जी की निश्रा में अपने शिष्य विद्यानंद जी को आचार्य पद एवं धर्मकीर्ति जी को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया। इस समय जिनमंदिर जी में केसर की अमीवृष्टि हुई थी, जो समूचे संघ में आश्चर्य और आनंद का कारण बना। आचार्य विद्यानंद सूरि जी को गुजरात में विचरण करने की आज्ञा देकर वे उपाध्याय धर्मकीर्ति जी के साथ पुनः मालवा पधारे।
आचार्य देवेन्द्र सूरि जी एवं आचार्य अमितसिंह सूरि जी के उपदेश से मेवाड़ नरेश समरसिंह ने अपने राज्य में कत्लखाने, शराबखाने बंद कराकर अमारि प्रवर्तन करवाया था। राजपूतों के इतिहास संबंधी ग्रंथों में वे फरमान भी प्राप्त होते हैं।
इनकी व्याख्यान शक्ति अद्भुत थी। मंत्रीश्वर वस्तुपाल जैसे श्रावक इनका व्याख्यान श्रवण
महावीर पाट परम्परा
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