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उनकी ही देन है। कई इतिहासकारों का मत है कि सुप्रसिद्ध केशरिया (केसरिया) जी तीर्थ (राजस्थान) की स्थापना भी जगच्चन्द्र सूरि जी के वरद्-हस्त से हुई। संघ व्यवस्था :
जगच्चन्द्र सूरि जी के समय साधुओं में शिथिलाचार की वृद्धि हो रही थी। यह देखकर जगच्चन्द्र सूरि जी को बहुत दुःख हुआ। आचार्य सोमप्रभ सूरि जी के कालधर्म उपरांत उन्होंने मेवाड़ की ओर विहार किया। एक बार चैत्रवाल गच्छ के पं. देवभद्र, गणी जी उनके संपर्क में आए। पं. देवभद्र गणी जी संवेगी, शुद्ध आचार पालक एवं आगमानुसार सर्वविरति धर्म के आराधक थे। संयम सुवास से मंडित दो दिव्य विभूतियों का मिलन अद्वितीय था।
संघ में छाये शिथिलाचार को कड़ी चुनौती देकर आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी में क्रियोद्धार करने की उत्सुकता पहले से ही थी एवं देवभद्र गणी जी का योग इस कार्य को संपादित करने हेतु सहायक हुआ। अतः दोनों ने मिलकर विशुद्ध साध्वाचार की संघ में पुनर्स्थापना की। आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी, पं. देवभद्र गणि जी, पं. देवकुशल जी, पं. देवेन्द्र गणि जी की निश्रा में अन्य गच्छों के भी अनेक सुविहित मुनिवरों ने भी अपने-अपने गच्छ में क्रियोद्धार किया।
इनके प्रमुख 2 शिष्य थे - आचार्य विजयचंद्र सूरि एवं आचार्य देवेन्द्र सूरि। विजय चंद्र सूरि जी के हृदय में आगमानुसार संयमी जीवन प्रवृत्ति के प्रति अस्थिरता देखते हुए जगच्चन्द्र सूरि जी ने देवेन्द्र सूरि जी को अपनी पाट पर स्थापित किया। क्योंकि देवेन्द्र सूरि जी क्रियोद्धार में सदा उनके साथ रहे। विजय चंद्र सूरि जी से तपागच्छ की वृद्धपैशालिक शाखा का उद्भव हुआ। . कालधर्म :
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में जगच्चन्द्र सूरि जी का विचरण मेवाड़ में रहा। वहीं उनका स्वर्गवास वी.नि. 1757 (वि.सं. 1295) के चैत्र के महीने में वीरशालि ग्राम में हुआ। इनका शिष्य परिवार 'तपागच्छ' के नाम से विश्रुत हुआ जो सदियों बाद आज भी प्रचलित है।
इसके साथ आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी की घोर तपश्चर्या के पुण्य का प्रत्यक्ष प्रभाव जुड़ा है जो आज दृष्टिगोचर है किस प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में तपागच्छ भारत भर में . विद्यमान है एवं कोटि-कोटि जनों की श्रद्धा व विश्वास का केन्द्र है।
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महावीर पाट परम्परा
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