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________________ पद प्रदान किया तथा वे 'आचार्य जगच्चन्द्र सूरि' के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार मेवाड़ के चित्तौड़ में 7 दिगंबर सहित 32 विद्वानों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। अस्खलित वाणी में धाराप्रवाह सभी वादियों को उन्होंने निरूत्तर किया। आचार्यश्री जी के तर्क हीरे की तरह अभेद्य/अकाट्य रहे तथा सभी विद्वानों में वे रूप व ज्ञान संपदा के कारण हीरे की तरह चमके। जगच्चन्द्र सूरि जी के बुद्धि कौशल से प्रभावित होकर चित्तौड़ नरेश जैत्रसिंह राणा ने उन्हें 'हीरक' (हीरला) का बिरूद् दिया एवं वे हीरला जगच्चन्द्र सूरि के नाम से विख्यात हुए। राणा जैत्रसिंह के वि.सं. 1270 से वि.सं. 1309 तक के शिलालेख आज भी प्राप्त होते हैं। इनके सांसारिक भाई वरदेव की चार संताने थीं। उनमें से बड़े पुत्र का नाम साढाल था। श्रेष्ठी साढल के धीणाक आदि 5 पुत्रों में क्षेमसिंह और देवसिंह ने जगच्चन्द्र सूरि जी के पास भागवती प्रव्रज्या ग्रहण की। धीणाक ने भी जैन साहित्य की सुरक्षा में तन-मन-धन से योगदान दिया। आचार्य श्री ने भी जैन साहित्य के संरक्षण हेतु वीरा दिशापाल आदि महंतों से ग्रंथों का लेखन कार्य करवाया। वीरा दिशापाल ने वि.सं. 1295 में पाटण में भीमदेव राजा के राज्य में रहते हुए ज्ञाताधर्मकथा (नायाधम्मकहाओ) आदि 6 अंग आगमों को टीका सहित लिखवाया था। जैन इतिहास के अति प्रसिद्ध देव-गुरु-धर्मोपसाक वस्तुपाल और तेजपाल अमात्य, दोनों इस युग की दिव्य विभूतियाँ थीं। महामात्य वस्तुपाल ने मेवाड़ देश में विचर रहे आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी को गुजरात पधारने के लिए आमंत्रण दिया। आचार्यश्री जी महामात्य के गुरु बनकर गुजरात पधारे एवं गुजरात की जनता ने उनका हार्दिक स्वागत किया। महामंत्री वस्तुपाल के शत्रुजय तीर्थ के छ:री पालित संघ में जगच्चन्द्र सूरि जी भी पधारे एवं गिरनार, आबू अनेक तीर्थों के प्रतिष्ठोत्सवों में हाजिर रहे। शासन प्रभावना के विविध कार्य करने हेतु भातृद्वय को उन्होंने मार्गदर्शन दिया। आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी को आयंबिल की तपश्चर्या करते हुए 12 वर्ष हो गए। उनके चेहरे पर तपस्या के प्रभाव से अलग ही नूर था। उदयपुर के पास आयड नगर में नदी किनारे वे नित्य आतापना लेकर ध्यान करते थे जिसके प्रभाव से उनका रूप अत्यंत निखर आया। मेवाड़ के नरकेसरी राणा जैत्रसिंह वि.सं. 1285 में आचार्यश्री जी की तपोसाधना से प्रभावित होकर उनके दर्शनार्थ नदी किनारे आया एवं उनके चमकते शरीर व उत्कृष्ट तपस्या को देख उन्हें 'महातपा' का बिरूद् प्रदान किया। धीरे-धीरे बड़ गच्छ का नाम 'तपागच्छ' हो गया जो महावीर पाट परम्परा 141
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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