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44. आचार्य श्रीमद् जगच्चन्द्र सूरीश्वर जी
जगच्चंद्र जी जगदुन्नायक, तपागच्छ लोकप्रचार।
जिनमत जाज्वल्यमान हीरक, नित् वंदन बारम्बार॥ उग्र तपश्चर्या, कठोर संयम एवं अरिमित ज्ञान जिनका आभूषण था एवं 'तपागच्छ' इस नाम की सार्थकता का इतिहास जिनसे जुड़ा है, ऐसे प.पू. आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी भगवान् महावीर की 44वीं पाट पर विराजमान हुए। यथा नाम तथा गुण - इस कथन को चरितार्थ कर अपनी संयम साधना के बल पर संपूर्ण जगत में चंद्र की भाँति चमके। जन्म एवं दीक्षा : ____ जगच्चंद्र सूरि जी का जन्म आघाटपुर में प्राग्वाट् (पोरवाल) वंश में हुआ। उनके पिता का नाम पूर्णदेव था। श्रेष्ठी पूर्णदेव के 3 पुत्र थे - सलक्षण, वरदेव और जिनदेव। इनके एक पुत्र ने आ. सिंह सूरि जी के पास बाल्यावस्था में दीक्षा ली थी और वे 'आचार्य मणिरत्न सूरि जी' बने। तीनों पुत्रों में जिनदेव सबसे छोट थे तथा बचपन से ही शांतवृत्ति के धनी धर्मप्रेमी था।
जब जिनदेव युवा अवस्था में आये, तब परिवार के आग्रह से उसका विवाह एक सुंदर कन्या से कर दिया गया। उनका एक पुत्र भी हुआ, जिसका नाम जसदेव रखा गया। किंतु जिनदेव को इन सांसारिक संबंधों में बिल्कुल आसक्ति नहीं थी। मोक्षमार्ग की अभिलाषा से उन्होंने भाई आ. मणिरत्नसूरि जी के पास मुनि दीक्षा ग्रहण की तथा उनका नाम मुनि जगच्चन्द्र रखा गया। शास्त्रों का गंभीर अध्ययन कर उन्होंने बहुमुखी योग्यता का संपूर्ण विकास किया। शासन प्रभावना : ___मुनि जगच्चंद्र की बहुमुखी योग्यता से सभी आश्चर्यचकित रहते थे। उन्हें गणि पद दिया गया। वि.सं. 1274 में आचार्य मणिरत्नसूरि जी क देहावसान के बाद पं. जगच्चन्द्र गणि ने आयम्बिल के तप प्रारंभ किए एवं आ. सोमप्रभ सूरि जी की सेवा में रहकर ज्ञान संपादन के कार्य किए। उनकी योग्यता जानते हुए सोमप्रभ सृरि जी ने उन्हें आचार्य पद एवं गच्छनायक
महावीर पाट परम्परा
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