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________________ यह श्लोक मूलतः वसंततिलका वृत्त छंद (भक्तामर वाली तर्ज) पर है। इसके अतिरिक्त दुग्धछंद, शंखछंद, शुभ्र, स्त्रीछंद इत्यादि छंद भी इस छोटे से श्लोक में उपयुक्त है। संघ व्यवस्था : ___आचार्य मणिरत्न सूरि जी के स्वर्गवास पश्चात् सोमप्रभ सूरि जी ने मणिरत्न सूरि जी के भाई व शिष्य को आचार्य पदवी प्रदान की व गच्छनायक पदासीन किया। वे आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनसे बड़गच्छ का नाम तपागच्छ पड़ा। इस काल में श्रमण-श्रमणी वर्ग में शिथिलाचार की वृद्धि होती जा रही थी। अनुकूलता सुविद्यावाद के कारण अनेक समाचारी में शनैःशनै स्वच्छंदवाद में विश्वास कर रहे साधु-साध्वियों ने परिवर्तन करना प्रारंभ किया, जिसका समूचे संघ में दुष्प्रभाव पड़ा। वृद्धावस्था इत्यादि अनेक कारणों से सोमप्रभ सूरि जी संभवतः क्रियोद्धार नहीं कर पाए किंतु उनके पट्टधर जगच्चंद्र सूरि जी ने अपने गच्छनायक पद के अति-अल्प काल में इस गुरुभावना को साकार किया। कालधर्म : __ आचार्य मणिरत्न सूरि जी वि.सं. 1274 (वी.नि. 1744) में थिरापद्र (थराद) नगर में स्वर्गवासी हुए। तत्पश्चात् आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने पट्टधर जगच्चंद्र सूरि साथ रखकर शासन के विविध कार्य संभाले। वि.सं. 1283 में भीडलिया तीर्थ की यात्रा कर वडाली (वडावली) में चातुर्मास किया। तत्पश्चात् वि.सं. 1284 में गुजरात के सुप्रसिद्ध शाश्वत तीर्थाधिराज शत्रुजय की संघ सहित यात्रा की एवं उस वर्ष का चातुर्मास अंकेवालिया (आघाटपुर) में किया। चातुर्मास के दरम्यान ही रूग्णता के कारण आचार्य सोमप्रभ सूरि जी का कालधर्म हो गया। महावीर पाट परम्परा 139
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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