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वंकचूल चोरी-डकैती इत्यादि करके अपना जीवन यापन करता था। जंगल में भीलों ने उस राजपुत्र वकचूल को पल्लीपति बना लिया। एक बार वर्षा काल से पूर्व आचार्य सुस्थित सूरि जी का उस जंगल में आगमन हुआ। उन्होंने चातुर्मास काल व्यतीत करने हेतु वंकचूल से थोड़ी जगह का आग्रह किया।
वंकचूल ने सत्य उद्घाटित किया कि वह चोर है इत्यादि किंतु सुस्थित सूरि जी उससे विचलित नहीं हुए। चातुर्मास के चार महीनों में आचार्यश्री जी के सम्यक् चारित्र की सुवास से पूरी पल्ली महक उठी। वकचूल का समर्पण भी आचार्य सुस्थित सूरि जी के प्रति बढ़ता गया । यद्यपि उसकी धर्मपालन में कुछ भी रुचि नहीं थी, लेकिन उसे बस गुरु से आकर्षण - सा हो गया था। जब चातुर्मास समाप्त हुआ और आचार्यश्री के विहार की वेला आई तब उनके उपदेशामृत से प्रभावित होकर वंकचूल ने बस 4 नियम ग्रहण किए
(1) अज्ञात-अनजाना फल नहीं खाना।
(2) किसी पर प्रहार / आघात करने से पहले 7-8 कदम पीछे हटना ।
(3) रानी को माता के समान मानना ।
(4) कौए के माँस का भक्षण नहीं करना ।
इन चारों नियमों के प्रभाव से समय-समय पर वंकचूल की रक्षा हुई एवं बुरा होने से टल गया। वह सदैव आ. सुस्थित सूरिजी का कृतज्ञ रहा। आचार्य सुस्थित के शिष्य - ऋषिदत्त (धर्मऋषि) एवं अर्हद्दत्त ( धर्मदत्त ) ने भी वंकचूल को एक बार सदुपदेश दिया जिसके प्रभाव से उसने चम्बल घाटी के पास एक जिनमंदिर का निर्माण कराया और भगवान् महावीर स्वामी जी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई। वह स्थल ढींपुरी के नाम से प्रख्यात हुआ किंतु कालक्रम से वह विलुप्त हो गया।
संघ व्यवस्था :
आचार्य सुस्थित एवं आचार्य सुप्रतिबुद्ध के अन्तेवासी 5 शिष्य प्रमुख थे - आचार्य इन्द्रदिन्न, आचार्य प्रियग्रन्थ, विद्याधर गोपाल, आचार्य ऋषिदत्त एवं आचार्य अर्हदत्त । इनके पट्टधर समर्थ दीर्घजीवी आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी बने । इस समय में संघ की सुविशालता के कारण गणाचार्य की भाँति वाचनाचार्य एवं युगप्रधानाचार्य की परम्परा भी सुदृढ़ रूप से विकसित हुई। आचार्य
महावीर पाट परम्परा
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