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________________ प्रबल हो जाने से साधु-साध्वी जी कलिंग देश की तरफ आ गए। कलिंग देश के राजा महामेघवाहन भिक्षुराज खारवेल के नेतृत्त्व में भुवनेश्वर के निकट कुमारगिरि पर्वत पर ऐतिहासिक श्रमण सम्मेलन एवं आगम वाचना का महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ । आचार्य सुस्थित, आचार्य सुप्रतिबुद्ध, श्यामाचार्य आदि 300 स्थविरकल्पी साधु, आर्य बलिस्सह, देवाचार्य आ. धर्मसेन आदि 200 मुनि आ. महागिरि की परम्परा के जिनकल्प की तुलना करने वाले साधु, भिक्षुराज, सीवंद, चूर्णक, सेलक आदि 700 श्रावक एवं महारानी पूर्णमित्रा आदि 700 श्राविकाओं की उपस्थिति में वह ऐतिहासिक श्रमण सम्मेलन हुआ । वाचनाचार्य आर्य बलिस्सह ने इस अवसर पर विद्याप्रवाद पूर्व के आधार पर ' अंगविद्या' आदि शास्त्रों की रचना की । जिनधर्मोपासक सम्राट खारवेल ने जिनशासन की महती प्रभावना की । मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने श्रावक के 12 व्रत स्वीकारे । प्रभु भक्ति निमित्ते उन्होंने 38 लाख चांदी की मोहरें खर्च कर महाविजयी नाम का भव्य जिनप्रासाद बनवाया था । श्रमणभक्ति निमित्ते उन्होंने अपने राज्य 117 गुफाएं बनवाई ताकि साधु-साध्वी जी को अनुकूलता रहे। वी. नि. 327 के आस-पास उसी के सद्प्रयासों से कुमारगिरि पर श्रमणसम्मेलन आयोजित हुआ। इस अवसर पर द्वादशांगी के विस्मृत पाठों को व्यवस्थित किया गया। कुमारगिरि पर्वत कलिंग देश का शत्रुंजय- अवतार कहा जाता था। राजा श्रेणिक के समकालीन राजा सुलोचन राय (शोभन राय) ने इस पर्वत पर पंचम गणधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी के हाथों से ऋषभदेव जी की सुवर्ण प्रतिमा की भव्य अंजनश्लाका प्रतिष्ठा कराई थी। उसी स्थान पर आचार्य सुस्थित सूरि जी एवं आचार्य सुप्रतिबुद्ध सूरि जी ने कठिन तपस्यापूर्वक एक करोड़ बार सूरिमंत्र का ऐतिहासिक जाप किया। इस उच्चतम साधना के फलस्वरूप प्रभु वीर का साधु-समुदाय निर्ग्रन्थ गच्छ के बजाए कोटिक गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जैन इतिहास में वंकचूल की कहानी अति - प्रसिद्ध है। कई इतिहासकार उस प्रकरण को किन्हीं आचार्य चन्द्रयश सूरीश्वर जी अथवा आचार्य ज्ञानतुंग सूरीश्वर जी से जोड़ते हैं किंतु प्रबंध कोश ग्रंथ में वह प्रसंग प्रस्तुत आचार्य सुस्थित सूरि जी से जोड़ा गया है जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है राजा विमलयश एवं रानी सुमंगला के पुत्र का नाम पुष्पचूल था और पुत्री का नाम पुष्पचूला था। बाल्यकाल से ही पुष्पचूल का चंचल मन अनर्थक कार्यों में रहता था जिसके कारण उसे कचूल कहा जाने लगा । एक दिन राजा ने क्रोधित होकर वंकचूल को राजमहल से निकाल दिया। महावीर पाट परम्परा 46
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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