________________
पुत्र ने पिता की स्मृति में अवन्ति पार्श्वनाथ (महाकाल) की प्रतिमा भराई। संभवतः उसकी प्रतिष्ठा आचार्य सुहस्ती सूरि जी के वरदहस्तों से हुई। ____आचार्य सुहस्ती सूरि जी धर्मधुरा के सफल संवाहक थे। उनके आचार्यकाल में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की सीमा मगध, सौराष्ट्र, अवन्ति, दक्षिण एवं अनार्य क्षेत्रों में भी विस्तृत हुई। इसका प्रमुख कारण सम्राट सम्प्रति मौर्य रहे। सम्राट सम्प्रति एवं जैन धर्म :
एक बार आचार्य महागिरि एवं युवाचार्य सुहस्ती विशाल शिष्य परिवार के साथ कौशाम्बी पधारे। स्थान की संकीर्णता के कारण दोनों का शिष्य परिवार भिन्न-भिन्न स्थानों पर ठहरा। उस समय भयंकर सूखा पड़ा हुआ था। जनता दुष्काल से पीड़ित थी। साधारण मनुष्य के लिए पर्याप्त भोजन मिलना कठिन था, किंतु जैन साधुओं के प्रति आस्था व भक्ति के होने से भक्त उन्हें तो पर्याप्त भोजन वोहराते थे।
भिक्षा हेतु आचार्य सुहस्ती के शिष्य एक गृहस्थ के घर पहुंचे। उनके पीछे-पीछे एक दीन-हीन दरिद्र भिखारी ने भी उसी घर में प्रवेश किया। गृहस्थ ने साधु को तो पर्याप्त मात्रा में भोजन भक्तिभाव से दिया किंतु उस भिखारी को कुछ भी नहीं दिया। वह भूखा भिक्षुक साधुओं के पीछे हो लिया और उनसे भोजन की याचना करने लगा। साधुओं ने समझाया कि उनका आचार एवं उनके गुरु की ऐसी आज्ञा नहीं है। वह भिक्षुक उनके पीछे-पीछे उपाश्रय पहुँच गया और सुहस्ती सूरि जी को उनका गुरु जानकर उनसे भोजन की याचना करने लगा। आचार्य सुहस्ती ने गंभीर दृष्टि से उसको देखा व ज्ञानोपयोग से जाना कि यह रंक भवान्तर में प्रवचनाधार बनेगा। उन्होंने उससे कहा - जो हमारे जैसा होता है, हम उसे ही दे सकते हैं। मुनि जीवन स्वीकार करने पर ही तुम्हें भोजन दे सकते हैं।" भिक्षुक को भोजन के अभाव से मृत्यु लेने की अपेक्षा कठोर मुनि जीवन बेहतर लगा। आचार्य सुहस्ती ने उसे दीक्षा प्रदान की। क्षुधा से पीड़ित भिक्षुक को मानों कई दिनों-हफ्तों के बाद पर्याप्त भोजन मिला। अतः आहार की मर्यादा का विवेक न रहा। अधिक भोजन कर लेने से नवदीक्षित मुनि को पेट का भयंकर दर्द हो उठा, संपूर्ण शरीर वेदना से कराह उठा। कल तक जो उन्हें गाली देकर भगा देते थे, वे सेठ आज उनके चरणों की सेवा कर रहे हैं। यह सब साधुवेश की महिमा एवं गुरु के उपकार की अनुमोदना करते-करते दीक्षा दिन की प्रथम रात्रि में ही वह नवदीक्षित मुनि कालधर्म को प्राप्त कर गया।
महावीर पाट परम्परा