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________________ वह भिक्षुक कालधर्म को प्राप्त कर सुप्रसिद्ध मगध नरेश अशोक मौर्य का पौत्र तथा अवन्ति नरेश कुणाल एवं उसकी पत्नी शरत्श्री के पुत्र 'संप्रति' राजकुमार के रूप में जन्म लिया। जब वह राजकुमार 15-16 साल का हुआ, तब आचार्य सुहस्ती सूरि जी का पदार्पण उस उज्जयिनी में हुआ। वे जीवित स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा के साथ भव्य शोभा यात्रा में चलते हुए राजमार्ग से निकले। उस समय युवराज संप्रति राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ था। उसने श्रमणवृंद से परिवृत्त आचार्य सुहस्ती को जब बार-बार गौर से देखा, तब उसके मन में ऐसा भाव आया कि ऐसे परमोपकारी गुरुदेव को कहीं देखा है। ऊहापोह करते-करते राजा संप्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। राजा संप्रति ने अपने पूर्वभव को जाना। इससे जिनधर्म के सिद्धांतों एवं आचार्य सुहस्ती जैसे सद्गुरु पर उन्हें अत्यंत गौरव एवं आलाद हुआ। वे भागकर नीचे उतरकर आए। आचार्य सुहस्ती को वंदन किया और विनम्र मुद्रा में पूछा - गुरुदेव! आप मुझे पहचानते हैं?. परमज्ञानी आचार्य सुहस्ती ने अपने ज्ञान के उपयोग से देखकर संप्रति महाराजा एवं उनका सम्बन्ध जाना और विस्तारपूर्वक बताया। संप्रति मौर्य ने प्रणत होकर निवेदन किया - "गुरुदेव! आपने मुझे पूर्वभव में संयमदान देकर आत्मा का उद्धार किया। एक दिन की दीक्षा के प्रभाव से तीन खंडों का राज्य मुझे प्राप्त हुआ। इस जन्म में भी मैं आपको गुरु रूप में स्वीकार करता हूँ। मुझे अपना धर्मपुत्र मानकर शिक्षा से अनुग्रहित करें एवं मेरे भवोभव के कल्याण हेतु विशिष्ट कर्तव्यों को सूचित करें।" आचार्य सुहस्ती सूरि जी ने फरमाया कि तुम्हें यह सब पुण्यप्रताप धर्म के कारण मिला है, अतः इससे धर्म की प्रभावना करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। आचार्यश्री के उपदेश से संप्रति महाराज ने सम्यक्त्व युक्त श्रावक के 12 व्रत अंगीकार किए। सम्राट संप्रति ने जिनशासन की महती प्रभावना की- सवा लाख नए जिनमंदिर, सवा करोड़ जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, छत्तीस हजार जीर्णोद्धार, 95 हजार पीतल की प्रतिमाएं, 700 दानशालाएं संप्रति महाराजा ने अपने 53 वर्षों के शासन में धरती को जिनमंदिरों से आच्छादित कर दिया था, यही नहीं गीतार्थ गुरु सुहस्ती की आज्ञा से अपने सुभटों को साधु वेश पहनाकर अनार्य देश भेजकर लोगों में जैन साधु के विषय में, आहार, कल्प आदि का सम्यक्ज्ञान कराकर अनार्य क्षेत्रों को भी साधु-साध्वी जी के विहार के योग्य बनाया। चीन, बर्मा, सिलोन, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान आदि दूर-दूर तक संप्रति महाराज ने जिनधर्म फैलाया। मथुरा के कंकाली टीले में आज भी उस समय के शिलालेख, प्रशस्तियाँ विद्यमान हैं। जिनशासन की महावीर पाट परम्परा
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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