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आचार्य पद निर्णय के समय श्रुतधर, दीर्घदर्शी आचार्य स्थूलिभद्र जी ने अपने दोनों मेध वी शिष्यों - महागिरि जी एवं सुहस्ती जी को अपना पट्टधर स्थापित किया। दीक्षा क्रम व अनुभव में ज्येष्ठ होने के कारण महागिरि जी का दायित्व प्रथम आया। आचार्य सुहस्ती सुविनीत शिष्य की तरह उनकी आज्ञा का पालन करते थे। किंतु आचार्य महागिरि गूढ आत्मसाधक थे। एक दिन उन्होंने सोचा कि, "मेरे अनेक स्थिरमति शिष्य सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं एवं गच्छ को संभालने में सुहस्ती दक्ष (कुशल) हैं। वैसे जिनकल्प विच्छेद हो चुका है किंतु जिनकल्प तुल्य तप आज भी कर्मों का विनाश करने में सक्षम है। अतः इस गुरुतर दायित्व से निवृत्त होकर आत्महित हेतु जिनकल्प तुल्य तप में प्रवृत्त होऊं।" निर्जन वनों में, शमशान वनों में, भयावह उपसर्गों को सहन करते हुए वे स्वतंत्र विचरण करने लगे। वे केवल आहार ग्रहण करने हेतु ही नगरों में आते थे।
' एक दिन आचार्य सुहस्ती सूरि जी पाटलिपुत्र में सेठ वसुभूति के घर पर धर्मोपदेश दे रहे थे। संयोग से आचार्य महागिरि भी वहाँ आहारार्थ (गोचरी के लिए) पधार गए। उन्हें देखते ही सुहस्ती सूरि जी बिना विलंब किए खड़े हो गए। आगे बढ़कर सुहस्ती सूरि जी ने उन्हें विधिवत् वंदन किया। आचार्य महागिरि के लिए सुहस्ती सूरि जी का ऐसा विनय देखकर श्रेष्ठी वसुभूति हैरान रह गया। महागिरि जी के जाने के बाद उसने पूछा कि आपके गुरु तो काल-कवलित हो गए। आप श्रुतसंपन्न हैं। क्या ये भी आपके गुरु हैं? तब सुहस्ती सूरि जी उन्हें गुरु कहकर स्तवना की एवं उनकी अतिदुष्कर साधना का भी वर्णन किया। यह आर्य सुहस्ती के विनय-विवेक का परिचायक है।
आचार्य महागिरि के स्वर्गवास पश्चात् श्रमण संघ संचालन एवं धर्म प्रचार के आधिकारिक आचार्य पद का वहन आचार्य सुहस्ती सूरि ने वी.नि. 245 (वि.पू. 225) में संभाला। आचार्य सुहस्ती सूरि जी एक बार अवन्ती में श्रेष्ठी पत्नी भद्रा के स्थान में विराजे। रात्रि के प्रथम प्रहर में 'नलिनीगुल्म' नामक अध्ययन का स्वाध्याय करते-करते भद्रा के पुत्र, 32 पत्नियों के स्वामी अवन्ति-सुकुमाल को वह सुनते-सुनते चिंतन-मनन करते जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अवंति-सुकुमाल बचपन से ही मोम के दान्त समान कोमल एवं सभी प्रसाधनों से युक्त था। किंतु उसके हृदय में अब वैराग्य की भावना का सिंचन हो गया। उसकी रूपवती 32 पत्नियां भी उसे संसार में रोक नहीं सकी। फलतः अवंति सुकुमाल ने दीक्षा ग्रहण की किंतु प्रथम ही दिन नंगे पांवों के कारण, पशु के उपसर्ग के कारण वे काल-कवलित हो गए। उसके सांसारिक
महावीर पाट परम्परा
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