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32. आचार्य श्रीमद् प्रद्युम्न सूरीश्वर जी
प्रबल प्रचारक प्रद्युम्न सूरि जी, पूर्व देश उद्धार । मार्गदर्शक शासन शिल्पी, नित् वंदन बारम्बार ॥
जब शंकराचार्य अनुयायियों द्वारा जैन धर्म पर सशस्त्र आक्रमण हो रहे थे, पंचासर और वल्लभीपुर जैसी जैन नगरियों का विनाश हो रहा था, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में दुष्काल फैल रहा ऐसे विकट समय में जैन संघ का प्रतिनिधित्व एवं नायकत्व करने वाले विजय प्रद्युम्न सूरि जी ने वीरशासन के 32वें पट्टधर के रूप में जिनशासन का कुशल संवहन किया ।
था,
शासन प्रभावना :
इनके समय में जैनों के स्मारक, साहित्य एवं साधुओं पर बहुत हमले हुए। बंगाल के असली जैनों को मजबूरी में जैनधर्म को त्यागना पड़ा। यह जाति आज 'सराक जाति' के नाम से विख्यात है एवं आज भी पूर्णतः सात्विक, शाकाहारी जीवन युक्त है। बंगाल एवं उत्तर भारत के कई जैनों को अपने स्थानों से पलायन करना पड़ा एवं वे मेवाड़ तथा राजपूत क्षेत्र में आ बसे । वे अपने साथ अनेक जिनप्रतिमाओं को भी लेकर आए जो संभवत: नांदिया, नाणा, दियाणा, बामणवाड़ा, मुंडस्थल, भीनमाल इत्यादि क्षेत्रों में विराजित की गई। भगवान् महावीर के जीवित अवस्था में उनकी बनाई गई प्रतिमा जीवित स्वामी भी लाई गई। ऐसी भयावह एवं जैन समाज की विकट परिस्थितियों में प्रद्युम्न सूरि जी ने यथाशक्ति स्थिति का नियंत्रण करने की कोशिश की।
जैन संस्कृति की रक्षा हेतु वे अनेक बार पूर्व भारत में पधारे। मगध - पाटलिपुत्र आदि क्षेत्रों का उन्होंने विचरण किया एवं शंकराचार्य के द्वारा जैनधर्म की हुई क्षति की क्षतिपूर्ति करने का संकल्प लिया। उन्होंने 7 बार सम्मेत शिखर की यात्रा की। उनके उपदेश से बंगाल आदि पूर्व प्रदेशों में 17 ( 70 ) नए जिनालय बनवाए गए, अनेक जीर्णोद्धार कराए गए, मजबूरी में जैनधर्म त्याग चुके लोगों में पुनः जैनत्व जागरण का शंखनाद किया एवं साहित्य सुरक्षा हेतु 11 शास्त्रभंडार स्थापित किए।
प्रद्युम्न सूरि जी का मानना था कि एकता में बल है। वे जानते थे कि चुनौती बड़ी है
महावीर पाट परम्परा
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