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________________ उनके सामान से प्राप्त प्रतिमा । पत्रों आदि से सबको शक हो गया कि वे जैन हैं। किसी तरह उन्होंने अपने प्राण बचाकर भागने का प्रयत्न किया किंतु हंस को रास्ते में मार दिया गया व परमहंस ने किसी प्रकार चित्तौड़ पहुँच पुस्तक पत्र हरिभद्र सूरि जी के हाथ सौंपे और वह भी रात में मार दिया गया। ___ अपर्न निर्ना शिष्या के खून से सनं हुए रजाहरण को देख आ. हरिभद्र सूरि जी को क्रोध और आवेश की अग्नि में जल उठे। महाराज सूरपाल की अध्यक्षता में उन्होंने बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया। परास्त दल को तेल के कुण्ड में जलने की प्रतिज्ञा के साथ शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। आ. हरिभद्र सूरि जी विजयी हुए किंतु उनकी विजय हिंसा में परिवर्तित होने जा रही थी। जैसे उनके गुरु आ. जिनभट्ट सूरि जी के नेत्र आत्मचिंतन से अश्रुपूरित हो गए। जिन 1444 बौद्ध भिक्षुओं का वध करने का उपक्रम उन्होंने बनाया था, उसके प्रायश्चित्त में उन्होंने 1444 ग्रंथों की रचना की। कई स्थानों पर ऐसा वर्णन है कि साध्वी याकिनी महत्तरा ने ध र्मबोध देकर उन्हें शांत किया। साहित्य रचना में लल्लिग नाम के श्रावक ने उन्हें खूब सहयोग दिया। वह रात में उपाश्रय में एक विशिष्ट मणि रख जाता था जिसके प्रकाश में आचार्यश्री साहित्य रचना करते थे। उनके अधिकांश ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं किंतु प्राप्त रचनाएं उत्तम कोटि की हैं। अनुयोगद्वार वृत्ति, अनेकांत जयपताका, अनेकांतवाद प्रवेश, अष्टक प्रकरण, आत्मसिद्धि, आवश्यक वृत्ति, ओघनियुक्ति वृत्ति, क्षेत्रसमास वृत्ति, चैत्यवंदन भाष्य, जंबूद्वीप संग्रहणी, जिणहर प्रतिमास्तोत्र, तत्त्वतरंगिणी, तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, दर्शनशुद्धि, दशवैकालिक सूत्र टीका, धर्मबिंदु, धर्मसंग्रहणी, धूर्ताख्यान कथा, न्यायप्रवेश वृत्ति, योगबिंदु, योगदृष्टि समुच्चय, ललितविस्तरा, लोकतत्त्वनिर्णय, विशेषावश्यक वृत्ति, व्यवहारकल्प वृत्ति शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्रावकप्रज्ञप्ति, षड्दर्शनसमुच्चय, संसार दावानल स्तुति, समराइच्चकहा, संबोध सित्तरी, सर्वज्ञसिद्धि, सावगधम्मसमास, शाश्वतजिनकीर्तन, हिंसाष्टक-अवचूरि इत्यादि-इत्यादि। महानिशीथ सूत्र का जीर्णोद्धार भी आचार्य श्री जी ने किया। हरिभद्र सूरि जी 'भवविरह में प्रयत्नशील बनो' ऐसा आशीर्वाद देते थे। वे भवविरह एवं याकिनीमहत्तरासुनू के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। विक्रम की 8वीं सदी के वे उच्च विद्वान थे। संसारदावानल सूत्र की चौथी गाथा का प्रथम चरण बनाते हुए वे कालधर्म को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 103
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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