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जब बादशाह अकबर के उत्तराधिकारी बादशाह जहांगीर मांडु में आए, तब उन्होंने अनेकों लोगों के मुख से हीर सूरि जी एवं उनकी गौरवशाली शिष्य-प्रशिष्य परंपरा के बारे में सुना। खंभात में विराज रहे देव सूरि जी को उसने निमंत्रण भेजा। आश्विन सुदि 13 को देव सूरि जी मांडु पहुंचे एवं बादशाह से मिले। सूरिजी की विद्वत्ता एवं तेजस्विता से जहांगीर बहुत प्रभावित हुआ।
बादशाह अकबर के पुत्र बादशाह जहाँगीर पर देव सूरि जी का बहुत अच्छा प्रभाव था। जब जहाँगीर मांडू में था, तब उसने आचार्य विजय देव सूरि जी के बारे में सुना तो जैन ध र्मोपदेश सुनने हेतु आमंत्रित किया। खंभात से विहार कर वे आश्विन शुक्ल त्रयोदशी वि.सं. 1673 (सन् 1616) को मांडू पहुँचे। बादशाह इनके व्यक्तित्त्व से बहुत प्रभावित हुआ। बादशाह ने कहा- श्री हीर सूरि जी तथा श्री सेन सूरि जी के पट्ट पर सर्वाधिकार पाने के योग्य ये ही आचार्य हैं" इत्यादि। - विजय सेन सूरि जी बहुत तपस्वी थे। घी को छोड़ शेष 5 विगई का उनका त्याग था व 11 द्रव्य से अधिक नहीं वापरते थे। वे आयम्बिल, नीवि, उपवास, छट्ठ, अट्ठम, अभिग्रह आदि कोई न कोई तपश्चर्या अवश्य करते थे व पारणे के दिन भी एकासणा ही करते थे। अठारह यक्ष सानिध्य में रहते थे। उनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व की ख्याति जनता में प्रसारित होने लगी। विजय देव सूरि जी की तपो-साधना से प्रभावित होकर बादशाह जहाँगीर ने वि.सं. 1664 में मांडवगढ़ में 'महातपा' का विशेषण प्रदान किया। वह खुद विजय देव सूरि जी के पास 6-6 घंटे जाकर धर्मचर्चा करता था। उसको प्रतिबोध देकर जीवदया के अनेक कार्य कार्यान्वित किए।
उदयपुर का राणा जगत् सिंह भी इनसे बहुत प्रभावित था। विजयदेव सूरि जी के समक्ष राणा ने 4 बातों की प्रतिज्ञा ली - आज से पिछौला और उदयसागर तालाब में मछली नहीं पकड़ी जाएगी, राज्याभिषेक के दिन, गुरुवार को संपूर्ण जीवहिंसा का निषेध रहेगा, अपने जन्म मास- भाद्रपद महीने में जीवहिंसा कतई नहीं होगी, मचिंदगढ़ में कुंभलविहार आदि जिन चैत्यों का जीर्णोद्धार कराया जाएगा।
राणाजी की उक्त 4 प्रतिज्ञाएँ सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ। आचार्य श्री का लौकिक व लोकोत्तर प्रभाव दिन प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त था।
एक बार आचार्य श्री जी का चातुर्मास सिरोही हुआ। आसपास के अनेक स्थानों के श्रावक वंदनार्थ आए। सादड़ी के श्रावकों ने फरियाद करते हुए कहा- हमारे नगर में लुकांमत
महावीर पाट परम्परा
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