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________________ (स्थानकवासी) का प्रचार जोरों से बढ़ रहा हैं और हमारा समुदाय - सम्यक् जिनधर्म निर्बल हो रहा है। यह सुनकर देव सूरि जी व्यथित हुए। शासन की अपभ्राजना उन्हें स्वीकार न थी। आचार्य श्री ने अपने पास के गीतार्थों को सादड़ी भेजा और वहाँ जाकर लुंकामतवादियों को शास्त्रार्थ के लिए बुलवाया। लुंपकों को पराजित कर राणाजी से सही वाला आज्ञा पत्र लिखवाया कि तपागच्छ वाले सच्चे हैं और लुंके झूठे हैं। राणाजी का यह पत्र सादड़ी के चौक में पढ़ा गया और लुंकों का प्राबल्य हटाया। जिन शासन के सत्य मार्ग से सबको जोड़ने का उत्तम भाव देवसूरि जी के हृदय में सदा रहता था । पाटण के सूबेदार को उपदेश देकर विजय हीर सूरि जी ( दादागुरु) के स्मारक का निर्माण कराया। सूबेदार ने 100 बीघा ज़मीन दी । वर्तमान में भी यह स्मारक 'दादावाड़ी' के 'नाम से सुप्रसिद्ध हैं। सूरि जी पुण्य के धनी थे। सूरि जी के मारवाड़ प्रवेश से ही वहाँ का दुर्भिक्ष दूर हो गया, अच्छी बारिश हुई जिससे वह शुष्क प्रदेश भी नदी मातृक हो गया। तेलंग, बीजापुर, जोधपुर, ईडर, किशनगढ़ आदि स्थान-स्थान पर मात्र धर्म प्रभावना ही नहीं कि अपितु बादशाह, राणा अथवा सूबेदार को प्रतिबोध देकर जीवदया के अनेक कार्य करवाए । ईडर (ईडरगढ़) में मुसलमानों द्वारा ऋषभदेव जी की प्रतिमा खंडित हो गई थी। इसलिए वहाँ के श्रावकों ने देव सूरि जी की प्रेरणा से उसी प्रमाण का नया जिनबिम्ब बनवाकर नडियाद की बड़ी प्रतिष्ठा में आचार्य विजयदेव सूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित करवा कर ईडर के किले के चैत्य में स्थापित कर दी। इन्होंने कई सज्झायों की रचना की। भारत भर के विभिन्न स्थानों में विचरण कर पूज्य श्री जी ने अनेक श्रावक बनाए, अनेकों का सम्यक्त्व दृढ़ किया एवं जिनशासन की महती प्रभावना की । संघ व्यवस्थाः आचार्य विजय सेन सूरि जी के समय में ही विजय हीर सूरि जी की विशाल सन्तति में परस्पर विचार भेद बढ़ते-बढ़ते उग्र हो गय। वि.सं. 1671 में सेन सूरि जी के कालधर्म पश्चात् उनके 2 पट्टधर हो गए-विजय देव सूरि और विजय तिलक सूरि । उन दिनों उपाध्याय धर्मसागर जी द्वारा प्रसारित सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वातावरण तनावपूर्ण था। दान सूरि जी, हीर सूरि जी ने उन्हें गच्छ से बहिष्कृत किया। धर्म सागर जी - विजयदेव सूरि जी के सांसरिक मामा लगते थे। विजय देव सूरि जी कहीं अपने मामा का साथ न दे दें, इस कारण से भ्रान्त धारणा वश विजय तिलक सूरि जी को भी महावीर पाट परम्परा 226
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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