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13. अंतिम 10 पूर्वधर आचार्य श्री वज्रस्वामी जी
विलक्षण वाग्मी वज्रस्वामी जी, धन्य चारित्राचार । संघरक्षक जिनशासनसेवक, नित् वंदन बारम्बार ॥
उत्सर्ग - अपवाद ज्ञानपूर्वक विशिष्ट शक्तियों से जिनशासन के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व अति- कुशलतापूर्वक तरीके से निभाकर आचार्य पद के दायित्व द्वारा संघ का योग-क्षेम करने वाले आचार्य वज्रस्वामी भगवान् महावीर के 13वें पट्टप्रभावक बने । पूर्वकृत पुण्योदय से शैशवकाल से ही उनका हृदय विरक्ति से परिपूर्ण रहा।
जन्म एवं दीक्षा :
अवन्ति प्रदेश में तुम्बवन नामक नगर में 'धन' नामक व्यक्ति का वैश्य परिवार रहता था। उसके पुत्र का नाम धनगिरि था । धर्नागिरि का मन बाल्यकाल से ही वैराग्यमयी था । धनगिरि के मित्र समित ने जैनाचार्य सिंहगिरि के सन्निकट दीक्षा ग्रहण की हुई थी। धनगिरि की इच्छा भी उनके पास संयम ग्रहण करने की थी किन्तु भोगावली कर्मों के कारण माता-पिता के आग्रह के कारण उसकी इच्छा न होते हुए भी समित की सांसारिक बहन सुनंदा के साथ विवाह हो गया।
सांसारिक भोगों को संतोषपूर्वक भोगते हुए वी. नि. 496 (वि. सं. 26, ईस्वी पूर्व 31 ) में सुनन्दा गर्भवती हुई। गर्भसूचक शुभ स्वप्न से दोनों को दृढ़ विश्वास हो गया कि उन्हें अत्यंत सौभाग्यशाली पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। इसे अपने दायित्व की परिपूर्ति समझकर धनगिरि ने संयम मार्ग पर अग्रसर होने की आज्ञा सुनन्दा से माँगी । पुनः पुनः विनती करने पर विवश होकर सुनन्दा ने आज्ञा प्रदान की । स्वीकृति मिलते ही धनगिरि दीक्षित हो गए और श्रेष्ठी आर्य समित आदि सहवर्ती मुनियों एवं गुरु के मार्गदर्शन में मुनि धनगिरि संयम जीवन का उत्तरोत्तर विकास करते रहे।
इधर गर्भकाल सम्पन्न होने पर सुनन्दा ने एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया । पुत्र के जन्मोत्सव पर नारी समूह में आलाप - संलाप - वार्तालाप होने लगे। किसी ने सहसा कहा - "यदि इस बालक के पिता धनगिरि दीक्षित न हुए होते तो और भी उल्लास होता । " इस प्रकार की बातें सुनकर
महावीर पाट परम्परा
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