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के आदि प्रवर्तक ईसामसीह भारतवर्ष आए थे। उन्होंने जैन धर्म का अध्ययन किया था एवं जैनधर्म की खूबियों को अपने मत में सम्मिलित किया। आचार्य सिंहगिरि सूरि जी जिनशासन की महती प्रभावना कर वी. 547 में कालधर्म को प्राप्त हुए।
समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य पादलिप्त सूरि जी : ___ इनका जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था। इनके पिता का नाम फुल्लचंद्र और माता का नाम प्रतिमा था। संग्रामसिंह सूरि जी इनके दीक्षादाता, नागहस्ती सूरि जी इनके दीक्षा गुरु एवं मण्डन सूरि जी इनके शिक्षा गुरु थे।
इनका प्रथम नाम मुनि नागेन्द्र था किंतु अपने गुरु नागहस्ती से पादलेप-विद्या ग्रहण की, जिसके प्रभाव से पैरों में औषधियों का लेप लगाकर गगन में विचरण करने की असाधारण क्षमता के धनी हो गए एवं फलस्वरूप 'पादलिप्त' के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पास मंत्र और तंत्र की विशिष्ट चामत्कारिक शक्तियाँ थीं। उनके मूत्र से पत्थर भी सोना बन सके ऐसी शक्तियाँ उनमें थी।
8 वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर, 10 वर्ष की आयु में वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए जो उनकी प्रखर योग्यता का सूचक है। मंत्र-विद्या का प्रयोग कर पादलिप्त सूरि जी ने पाटण के राजा मुरुण्ड को, मानखेट के राजा कृष्ण को. ओंकारपुर के राजा भीम को, प्रतिष्ठानपुर के राजा शातवाहन आदि को प्रभावित कर धर्मप्रचार में उन्हें सहयोगी बनाया। उनकी कवित्व शक्ति भी अनुपम थी। वे अपने युग के विश्रुत विद्वान थे। दस हजार पद्ययुक्त गंभीर कृति - तरंगवती कथा, दीक्षा एवं प्रतिष्ठा विषयक कृति निर्वाणकलिका तथा ज्योतिष विषयक कृति - प्रश्नप्रकाश आदि ग्रंथ उनकी अमूल्य देन है। ___पादलिप्त सूरि जी ने शत्रुजय पर महावीर स्वामी जी की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। प्रभु प्रतिमा के समक्ष उन्होंने 2 पद्यों में प्रभु स्तुति की। उन पद्यों में सुवर्ण सिद्धि व गगनगामिनी विद्या का संकेत थे, जो आज भी गुप्त ही हैं। योगविद्यासिद्ध आचार्य पादलिप्त सूरि जी 32 दिनों के अनशन से शत्रुजय गिरिराज पर स्वर्ग सिधारे। उनका समय वीर निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी रहा। उनके गृहस्थ शिष्य नागार्जुन ने गुरुभक्ति निमित्ते पादलिप्तसूरि जी के नाम पर शजय तीर्थ की तलहटी पर 'पादलिप्तपुर' नामक नगर बसाया जो बाद में 'पालीताणा' कहलाया जाने लगा।
महावीर पाट परम्परा