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• समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य हेमचंद्र सूरि जी : __कलिकाल सर्वज्ञ, सरस्वती पुत्र आचार्य श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वर जी म. जैन जगत् के एक अति जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनका जन्म वि.सं. 1145 (ईस्वी सन् 1088) में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को गुजरात प्रदेशान्तर्गत धंधुका नगरी में हुआ। माँ पाहिणी से उन्हें जैनधर्म के सुसंस्कार मिले एवं गुरुदेव आचार्य देवचन्द्र सूरि जी के सदुपदेश से उनका बालवय का उद्देश्य भविष्य में धर्मोद्योत बन गया। माघ शुक्ला 14, वि.सं. 1154 में नौ वर्षीय चांगदेव की दीक्षा सम्पन्न हुई एवं उनका नामकरण - मुनि सोमचंद्र रखा गया। उनकी प्रतिभा अत्यंत प्रखर थी।
साहित्य की विविध विद्याओं का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया। ज्ञानाराधना की अधिक शक्ति को प्राप्त करने हेतु उन्होंने कश्मीर की ओर यात्रा प्रारंभ की, किंतु सिद्धचक्र यंत्र एवं ज्ञानपद की आराधना से सरस्वती देवी (विमलेश्वर देव) ने प्रकट होकर उन्हें ज्ञानसाधना में अनुकूलता की बात कही। कुछ ही वर्षों में मुनि सोमचंद्र उत्तम कोटि के विद्वानों में गणना होने लगी। शासनदेवी ने उन्हें कुछ विशिष्ट मंत्र व विद्याएं भी प्रदान की थी। उनकी बहुमुखी प्रतिभा को देखते हुए चतुर्विध संघ की उपस्थिति में अक्षय तृतीया के पावन दिन वि.सं. 1166 में उन्हें आचार्य पदवी प्रदान की गई। इस अवसर पर आचार्य देवचन्द्र सूरि जी ने फरमाया कि यह हेम (स्वर्ण) की भाँति ज्ञानशक्ति से सर्वत्र प्रकाश करेगा एवं चन्द्र की भाँति शीतल प्रकाश से संघ के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व निभाएगा। अतः उनका नाम आचार्य हेमचंद्र सूरि घोषित किया गया। इसी प्रसंग पर उन्होंने अपनी सांसारिक माँ पाहिणी को भी भागवती दीक्षा प्रदान की। मात्र 21 वर्ष की आयु में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हेमचन्द्राचार्य जी ने जिनशासन की खूब प्रभावना की।
युवाचार्य हेमचंद्र सूरि जी ने गुजरात नरेश सम्राट सिद्धराज जयसिंह को भी प्रतिबोधित किया। राजा के आग्रह पर आचार्यश्री ने व्याकरण ग्रंथ की रचना की, जिसका नाम 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' रखा गया। संस्कृत व प्राकृत भाषा की व्याकरण से संबंधित 4791 सूत्रों में रचे इस उत्तम ग्रंथ से राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। इस ग्रंथ का हाथी की अंबाडी पर नगर भ्रमण कराया गया व कच्छ, काशी, कुरुक्षेत्र, जालंधर, कलिंग, हरिद्वार आदि श्रुतकेन्द्रों तक भी पहुँचाया गई।
महावीर पाट परम्परा
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