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41. आचार्य श्रीमद् अजितदेव सूरीश्वर जी
जन हितैषी सूरि अजितदेव जी, जीरावला दातार।
तर्क-वितर्क-कुतर्क विजेता, नित् वंदन बारम्बार॥ शासननायक भगवान् महावीर की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के क्रमिक 41वें पट्टधररत्न आचार्य श्री अजितदेव सूरि जी एक शासन प्रभावक आचार्य रहे। न्याय एवं षड्दर्शन पर उनका विशेष प्रभुत्व था। संस्कृत के गद्य-पद्य वे धाराप्रवाह रूप में रचने व बोलने में सामर्थ्यवान थे। वह युग वाद-विवाद का युग था। जैन दर्शन की पवित्र मान्यताओं व सिद्धांतों का निर्भीक प्रचार कर उन्होंने अनेक वादियों को परास्त किया।
उनका विचरण सुदीर्घावधि तक सौराष्ट्र प्रदेश में हुआ। इसके सुफल स्वरूप इनकी प्रेरणा से वि.सं. 1191 में अतिशयकारी जीरावला तीर्थ की स्थापना संभव हुई। वरमाण के सेठ धांधल श्रीमाली के पुरुषार्थ से अतिप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा जीरावला तीर्थ में महावीर स्वामी जी के देरासर में आचार्यश्री द्वारा प्रतिष्ठित हुई। उस समय जीरापल्ली तीर्थ प्रसिद्धि को प्राप्त था। ___ गुजरात नरेश सिद्धराज जयसिंह भी इनका परम भक्त था। वह कई घंटों तक आचार्यश्री के पास बैठकर धर्मचर्चा करता था। वस्तुतः वह अजैन था किंतु अजितदेव सूरि जी एवं हेमचन्द्र सूरि जी की कृपा जैनधर्म से जुड़ा। ___ अजितदेव सूरि जी के गुरुभाई वादीदेव सूरि जी भी महाप्रभावक आचार्य हुए। खरतरगच्छ की उत्पत्ति भी लगभग इसी समय में हुई। कलिकाल-सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सूरि जी इनके समकालीन हुए।
महावीर पाट परम्परा
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