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मिल पाती थी, वो इनके समय में पुनः मिलने लगी। आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी स्वयं नवकल्पविहारी थे एवं संपूर्ण गच्छ में उसका संभवतः पालन करवाते थे। आचार्य आनंद सूरि जी, आचार्य देवप्रभ सूरि जी, आचार्य मानदेव सूरि जी, आचार्य अजितप्रभ सूरि जी, आचार्य अजितदेव सूरि जी, आचार्य रत्नसिंह सूरि जी इत्यादि से मंडित साधु समुदाय की सारणा-वारणा-चोयणा - पडिचोयणा कर शासन प्रभावक रत्नों को तैयार किया। इनके परिवार में जघन्य 500 साधु भगवंत आज्ञा में थे एवं अनेक साध्वी जी भी थे। इन्होंने चैत्यवास का सदा विरोध किया एवं शिथिलाचार में डूबे मुनिराजों को गच्छ से बहिष्कृत किया। वि.सं. 1174 में चंदनबाला नामक साध्वी जी को उन्होंने महत्तरा पद दिया ।
कालधर्म :
खंभात, नागौर आदि स्थलों पर चातुर्मास करते हुए ये कालधर्म को प्राप्त हुए। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए दीर्घायु को प्राप्त आ. मुनिचंद्र सूरि जी म.सा. का कालधर्म कार्तिक वदि 5 की रोज वि.सं. 1178 में उनकी कर्मभूमि पाटण में समाधिपूर्वक हुआ । अम्बिका देवी की सूचनानुसार उनके शिष्य आचार्य वादिदेव सूरि जी अपने शिष्य परिवार के साथ हाजिर रहे। उस समय उन्होंने 'गुरुविरहविलाप' एवं 'मुणिचंद सूरि थुई' की रचना की । मुनिचंद्र सूरि जी के देहावसान से संपूर्ण संघ में शून्यता का आभास होने लगा । गच्छ संचालन हेतु उनके योग्य उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य अजितदेव सूरि जी उनके पट्टधररत्न बने ।
महावीर पाट परम्परा
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