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50. आचार्य श्रीमद् सोमसुंदर सूरीश्वर जी
तप जप ज्ञान संयम सुवासी, अर्धशतक पट्टधार।
सद्धर्मधुरीण आचार्य सोमसुंदर, नित् वंदन बारम्बार॥ ज्ञानयोग-भक्तियोग-तपयोग-कर्मयोग के चतुर्मुखी धर्मरथ द्वारा जिनवाणी की सिंह गर्जना करके शासन की महती प्रभावना कर भगवान महावीर के 50वें पट्टधर आचार्य विजय सोमसुंदर सूरि जी महाराज ने अपने युग में अद्भुत संयम क्रांति का शंखनाद किया एवं वीर शासन का प्रत्येक पुष्प सदियों तक गौरवान्वित हो, ऐसे महनीय कार्य किए। जन्म एवं दीक्षा : ___ पालनपुर में सेठ सज्जनसिंह एवं उनकी पत्नी माणकदेवी के सद्गार्हस्थ्य के योग से उन्हें संतानोत्पत्ति का सुख मिलने वाला था। गर्भावस्था के दौरान मात्रा ने सोम (चंद्रमा) अपने स्वप्नों में देखा। अतः मार्गशीर्ष (माघ) वदि 14 शुक्रवार वि.सं. 1430 में जन्में उत्तम लक्षणों वाले पुत्र का नाम उन्होंने 'सोमचंद' रखा। ___ मात्र 7 वर्ष की अल्पायु में माता-पिता की आज्ञा लेकर बालक ने वि.सं. 1437 में आचार्य जयानंद सूरि जी का शिष्यत्व ग्रहण किया। उसका नाम - 'मुनि सोमसुंदर' रखा गया। बालवय में कच्ची मिट्टी की तरह बुद्धि के धनी होने के कारण उनके गुरुदेवों ने कुशल शिल्पकार की भाँति मुनि सोमसुंदर को बहुत अच्छे से पढ़ाया। ज्ञानसागर सूरि जी आदि गीतार्थो की निश्रा में विद्याध्ययन कर मुनिराज चंद्रमा की शशिकलाओं की भाँति विकसित हुए।
शासन प्रभावना:
_ वि.सं. 1450 में उन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया गया एवं मात्र 27 वर्ष की आयु में वि.सं. 1457 में पाटण में सेठ नरसिंह ओसवाल के उत्सव में आचार्य देवसुंदर सूरि जी ने अपने हाथ से इन्हें आचार्य पद का वासक्षेप दिया तथा ये आचार्य सोमसुन्दर सूरि के नाम से प्रख्यात हुए।
महावीर पाट परम्परा
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