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________________ वह बालक जश अब मुनि यशोविजय जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यशोविजय जी स्वाध्याय रसिक एवं ज्ञानपिपासु थे। उन्होंने व्याकरण, ज्योतिष, काव्य, षड्दर्शन आदि विषयों का अहर्निश तलस्पर्शी अध्ययन किया एवं प्रभुत्व प्राप्त किया। गुर्वाज्ञा से वि.सं. 1699 में वे न्याय सम्बन्धी विशेष अध्ययन के लिए काशी गए। वहाँ उन्होंने सभी भारतीय दर्शनों पर दक्षता हासिल की। एक ही दिन में 700 श्लोकों को कण्ठस्थ कर वाराणसी के विद्वानों को उन्होंने चमत्कृत कर दिया। श्रावक धनजीसूरा ने उनके अध्ययन का संपूर्ण खर्चा उठाया। ___एक बार उन्हें 'द्वादशार नयचक्र' नामक ग्रंथ की जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली। यह उस समय में उस ग्रंथ की अन्तिम प्रति थी। उनके मन में आया यदि इस ज्ञानप्रदायक विशिष्ट ग्रन्थ का पुनर्लेखन नहीं किया गया तो भविष्य की पीढ़ी इस ज्ञान से वंचित रह जाएगी। अपनी सभी भूख-प्यास छोड़कर वे उसके संशोधन व पुनर्लेखन के कार्य में जुट गए। ऐसे हितचिन्तक सुसाधुओं के कारण ही श्रुत साहित्य की अक्षुण्ण परम्परा हम तक पहुँच सकी है। विसं 1718 में उन्हें उपाध्याय पदवी से अलंकृत किया गया। वि.सं. 1726 में खम्भात में उन्होंने पण्डितों की सभा में संस्कृत में प्रभावशाली उद्बोधन दिया। उसकी विशेषता यह थी कि कहीं किसी शब्द में संयुक्ताक्षर और अनुस्वार नहीं था। संस्कृत पर उनके प्रभुत्व से सभी आश्चर्यचकित हो गए। वि.सं. 1730 के जामनगर चातुर्मास में उन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र के 'संजोगा विप्मुक्कस्स' सूत्र पर 4 महीने तक प्रवचन दिया। विभिन्न जगहों से उन्हें न्यायविशारद, तार्किक. शिरोमणि, न्यायाचार्य आदि बिरुद प्राप्त हुए। ___ अवधान विद्या पर भी महोपाध्याय यशोविजय जी का विलक्षण प्रभुत्व था। इसमें तीव्र स्मरणशक्ति व बुद्धि कौशल का अनुपम प्रयोग होता है। संघ के मध्य अहमदाबाद में मुसलमान सूबों की राजसभा में अवधान विद्या के सफल प्रयोग से सभी मंत्रमुग्ध हो गए। वे अपनी शिष्य संपदा नहीं, बल्कि श्रुतसम्पदा के आधार पर चिरंजीवी बने। जैन तर्क भाषा, ज्ञान बिन्दु, ज्ञान प्रकरण, अष्ट-सहस्त्री विवरण, स्याद्वाद कल्पलता, नयप्रदीप, नय रहस्य, नयामृत तरंगिणी, अध्यात्मसार, अध्यात्म परीक्षा, वैराग्य कल्पलता इत्यादि शताधिक ग्रन्थरत्नों की रचना कर मोक्षमार्ग के पथिकों पर अनंत उपकार किया। आनन्दघन जी के 22 जिन-स्तवनों पर बालावबोध गुजराती टीका की भी उन्होंने रचना की। वि.सं. 1743 (1745) में गुजरात के बड़ौदा शहर से 19 मील दूर दर्भावती (डभोई) शहर में उनका कालधर्म हुआ। ज्ञानयोग की गंभीरता को आत्मसात् कर उन्होंने प्रभावक आचार्यों की भाँति जिनशासन की विशेष प्रभावना की। महावीर पाट परम्परा 239
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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