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________________ 70. पंन्यास श्रीमद् कस्तूर विजय जी गणि कस्तूरी सम मधुर सुवासित, कस्तूर विजय तपाचार। मितभाषी-हितभाषी गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ शासनपति भगवान् महावीर की जाज्वल्यमान संवेगी तपागच्छ परम्परा के 70वें पाट पर पंन्यास कस्तूर विजय जी हुए। तपश्चर्या के मार्ग पर कर्मों की निर्जरा करना उनका प्रमुख ध्येय था। उनका स्वर्ग गमन अपने दादागुरु रूप विजय जी की वृद्धावस्था के समय हो गया था। जन्म एवं दीक्षा : उनका जन्म गुजरात के पालनपुर नगर में वि.सं. 1833 में किन्हीं सद्गृहस्थ जैन परिवार के घर . हुआ। स्थानकवासी एवं यतियों की सिद्धांत-समाचारी से इनका मोहभंग हुआ एवं रूपविजय जी - कीर्ति विजय जी के आचार से वे अत्यंत प्रभावित हुए। वि.सं. 1870 में इनकी दीक्षा सम्पन्न हुई। इनका नाम मुनि कस्तूर विजय रखा गया एवं वे कीर्ति जी के शिष्य घोषित हुए। शासन प्रभावना : साधुवेश में कस्तूर विजय जी ने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। वे तपयोगी थे - उग्र तपस्या द्वारा कर्मों को जलाकर शांति के पथ पर जीवन को सार्थक बनाने में रत् रहते थे। उनका अपनी इन्द्रियों पर असाधारण काबू था। गोचरी में बहुत कम द्रव्य वापरते थे। अपनी वृत्ति से उन्होंने भव्य जीवों को सम्यक् तप से जोड़ा। पंन्यास श्री मणि विजय जी दादा, इनके प्रभावक शिष्यों में से एक थे। कालधर्म : 33 वर्ष का चारित्र पर्याय पालते हुए 65 वर्ष की आयु में पं. श्री कस्तूर विजय जी का वि.सं. 1903 में बडोदरा (बड़ौदा) में कालधर्म हुआ। उनके दादागुरु श्री रूपविजय जी संभवतः वृद्धावस्था में अवनितल पर विचरण कर रहे थे। ऐसे तपस्वी संत का हृदयविदारक देवलोकगमन गुरु एवं संघ के लिए अपूरणीय क्षति रही। महावीर पाट परम्परा 258
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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