SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने निःसंकोच भाव से नेमिचंद्र सूरि जी की इस रचना को दृष्टिवाद ( विलुप्त अंग आगम) के अंश का सूचक माना है। यह टीका संक्षिप्त मूल पाठ का स्पर्श करती हुई अर्थ गौरव से परिपूर्ण है। वैराग्यरस से परिप्लावित कथाओं से टीका में प्राणवत्ता आ गई है। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी की यह रचना सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सार्वजनिक उपयोगी सिद्ध होती है। इन सबके अतिरिक्त उन्होंने वि.सं. 1160 में सरवाल गच्छ के वाचनाचार्य वीरगणी जी की रचित पिंडनियुक्ति ग्रंथ की शिष्यहिता नामक वृत्ति (टीका) का पाटण में संशोधन किया एवं वि.सं. 1162 में आचार्य देवसूरि जी द्वारा रचित जीवानुशासन सटीक का भी संशोधन किया व साहित्य जगत् के उज्ज्वल नक्षत्र के रूप में श्रुतप्रभावना की । धर्म : शांति, सेवा व साधना के भाव में अनुरक्त आचार्य यशोभद्र सूरि जी म.सा. एवं साहित्य, समर्पण व सहयोग के भाव में अनुरक्त आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी म. सा. ने साथ मिलकर चतुर्विध संघ के योग-क्षेम का दायित्व निभाया। इनके साहित्य साधना का प्रमुख क्षेत्र गुजरात तथा राजस्थान रहा। गुजरात में उस समय चौलुक्यवंशी राजाओं का राज्य था एवं स्थिति जिनधर्म के अनुकूल रही। यशोभद्रसूरि जी का कालधर्म शीघ्र हो गया। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी शासन की महती प्रभावना करते हुए वि.सं. 1169 के आसपास कालधर्म को प्राप्त हुए। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी ने अपने गुरुभाई उपाध्याय विनयचंद्र जी के शिष्य श्री मुनिचंद्र को आचार्य पदवी प्रदान की एवं योग्यता जानकर अपने बाद गच्छ की अनुज्ञा प्रदान की। महावीर पाट परम्परा 123
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy