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________________ 1585 में प्रतिष्ठित) 2) जैन मंदिर, घड़कण में प्राप्त अजितनाथ जी की धातु की प्रतिमा (प्रतिमालेख के अनुसार माघ वदि 2 बुधवार संवत् 1585 में प्रतिष्ठित) 3) शांतिनाथ जिनालय, छाणी एवं जगवल्लभ पार्श्वनाथ देरासर नीशापोल, अहमदाबाद में प्राप्त ऋषभदेव जी की प्रतिमा (प्रतिमा लेख के अनुसार माघ सुदि 21 शुक्रवार संवत् 1585 में प्रतिष्ठित) माणिभद्र देव बने तपागच्छ के अधिष्ठायक : माणिभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव के रूप में श्रमण-श्रमणी वर्ग एवं जिनशासन पर आए उपद्रवों से रक्षा करते हैं। इसका संपूर्ण श्रेय आचार्य आनंदविमल सूरि जी महाराज को जाता है। _ वि.सं. 1584 में हेमविमल सूरि जी के कालधर्म के बाद आनंदविमल सूरि जी ने मालवा की ओर विहार किया। उज्जैन के पास क्षिप्रा नदी के किनारे गंधर्व शमशान में ध्यान साधना के उद्देश्य से आनंदविमल सूरि जी ने काउसग्ग आरंभ किया। उज्जैन में माणेकचंद नाम का सेठ रहता था। पहले तो वो जैनधर्म परायण था किंतु यतिवर्ग की शिथिलता एवं लुंकामत (स्थानकवासी) वर्ग से आकर्षित होकर वह सुसाधुओं का द्वेषी हो गया था। माणेकचंद की माता दृढ़ सम्यक्त्वी एवं प्रभु वीर के शासन के प्रति समर्पित श्राविका थी। उनकी माता ने माणेकचंद से कहा - "गुरु महाराज की एक महीने की तपस्या पूर्ण हो रही है। शमशान में उन्होंने ध्यान लगाया हुआ है। कल उनका पारणा दिवस है। उन्हें गोचरी के लिए घर बुलाना है।" ___ माणेकचंद गुरुदेव को घर बुलाना नहीं चाहता था, किंतु माता के प्रति आदर व पूज्यभाव से वह मना भी नहीं कर सका। कौतुहलवश अपनी घृणापूर्ण बुद्धि से वह रात्रि में ही आनंदविमल सूरि जी की परीक्षा लेने मशाल लेकर शमशान आया। गुरुदेव कायोत्सर्ग में थे। माणेकचंद ने मशाल से उनकी दाढ़ी जला दी। माणेकचंद को लगा था कि वो विचलित होंगे एवं कायोत्सर्ग को छोड़कर उस पर क्रोधित होंगे और वह उनका ढोंग प्रमाणित कर देगा। किन्तु दाढ़ी के बाल जल जाने पर भी आनंदविमल सूरि जी शांतुमुद्रा में काउसग्ग में लीन रहे। अंततः माणेकचंद को बहुत पछतावा हुआ। सुबह-सुबह व पुनः गुरुदेव के पास आया। उसने क्षमा मांगी। गुरुदेव महावीर पाट परम्परा 204
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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