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________________ के वात्सल्य एवं करुणा से अभिभूत होकर माणेकचंद उनका भक्त बन गया। गुरुदेव प्रेम से उसके घर गोचरी हेतु पधारे। माणेकचंद सेठ का व्यापार हेतु पाली में आवागमन होता रहता था। उसके आग्रह से आनंदविमल सूरीश्वर जी ने एक चातुर्मास पाली किया। चातुर्मास दरम्यान गुरुमुख से शत्रुजय माहात्म्य द्वारा तीर्थाधिराज शजय (पालीताणा) की महिमा सुनी। उसी क्षण उसने यह प्रतिज्ञा ली कि जब तक गिरिराज के दर्शन नहीं करता, अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। पाली से उपवास के पच्चक्खाण के साथ पैदल ही उसने शत्रुजय की ओर प्रस्थान किया। उपवास के सातवें दिन वह पालनपुर के पास मगरवाड़ा के जंगल से गुजरता हुआ जा रहा था। वहाँ भील लोगों ने उस पर हमला किया, सब वस्तुएं ले ली और मार डाला। शत्रुजयं तीर्थ के शुभ भाव में माणेकचंद सेठ व्यंतर निकाय में माणिभद्र नामक देव हुआ। इधर शिथिलाचार के साथ-साथ गच्छों से दृष्टि राग की भी अत्यंत वृद्धि हो रही थी। गच्छ ममत्व से येन-केन-प्रकारेण अन्य गच्छ के साधु कम हो, क्षीण हो, दुर्बल हो, ऐसे प्रयासों को भी क्रियान्वित किया जा रहा है। आचार्य आनंदविमल सूरि जी के भी एक-एक करते-करते 500 साधु रूग्ण (बीमार) होकर अकारण कालधर्म को प्राप्त हो गए। उन्हें ज्ञात हुआ कि खरतरगच्छ के किसी साधु ने भैरव देव को वश में करके ऐसा दुष्कृत्य किया है। आचार्यश्री जी बहुत दुःखी हुए। अपने साधु-साध्वियों की रक्षा का दायित्व परिपूर्ण न कर पाने से वे अत्यंत दुःखी हुए। विहार करते-करते आनंदविमल सूरि जी मगरवाड़ा पधारे। शासनरक्षा की भावना से वे रात्रि में ध्यानरूढ़ हुए। पूर्वभव के उपकार को स्मरण करते हुए माणिभद्र देव गुरु भगवंत के समक्ष प्रकट हुए। माणिभद्र देव ने संपूर्ण वृत्तांत सुनाया एवं सेवा का अवसर माँगा। ___ गुरुदेव ने माणिभद्र देव को संपूर्ण प्रकरण बताया एवं साधुओं की रक्षा की बात की। शासनभक्ति से प्रेरित हो देव ने गुर्वाज्ञा स्वीकार की एवं कहा कि मुझे आपका कथन स्वीकार है किंतु साथ ही तपागच्छ के उपाश्रयों में मेरी मूर्ति स्थापित हो जिससे मुझे सदैव सुगुरुदर्शन का लाभ मिलता रहे। गुरुदेव ने स्वीकार किया, तभी से माणिभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव के रूप में जाने जाते हैं। महावीर पाट परम्परा 205
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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