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. समकालीन प्रभावक आचार्य . श्री कालकाचार्य (द्वितीय):
धारानगरी के राजा वीरसिंह एवं रानी सुरसुन्दरी के पुत्र राजकुमार कालक हुए। उनकी बहन का नाम सरस्वती था। दोनों भाई-बहन गुणाकर मुनि के सदुपदेश से उद्बोधित हुए एवं दीक्षा ग्रहण की। अल्प समय में ही वे शास्त्रों के पारगामी बन गए। मंत्र शास्त्र की शक्ति उनमें विशिष्ट थी। उनकी योग्यता को देखते हुए वीर नि. 453 में वे आचार्य पद से विभूषित किए गए। प्रतिष्ठानपुर में अन्य- धर्मियों से उन्होंने निमित्तविद्या व मंत्रविद्या का उसी वर्ष अभ्यास किया था। ___ उज्जयिनी नगरी का राजा गर्दभिल्ल उनकी बहन साध्वी सरस्वती श्री के रूप सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था। अतः उसने साध्वीश्री का जबरन अपहरण करवा लिया। संरक्षक के इस भक्षक-सम कृत्य से कालकाचार्य उत्तेजित हो गए। उन्होंने उसे समझाने का प्रयत्न किया किंतु मोहारूढ़, अन्यायी, अधम राजा अपने अहंकार में रहा। साध्वी सरस्वती की शील सुरक्षा एवं जिनशासन पर आए ऐसे संकट से कालकाचार्य का क्षत्रिय-तेज उद्दीप्त हो गया एवं जिनप्रवचन के अहित साधक राजा गर्दभिल्ल को राजसिंहासन से हटाने की कठोर प्रतिज्ञा उन्होंने ली। कालकाचार्य जी सिंध प्रदेश से शकों को विद्या से प्रभावित कर उन्हें भारत लाए एवं योजनाबद्ध तरीके से राजा गर्दभिल्ल को परास्त कराया। आचार्य कालक ने श्रीसंघ की साक्षी से साध्वी सरस्वती को पुनः दीक्षित किया एवं स्वयं भी इसका प्रायश्चित्त ग्रहण किया।
पश्चिम में ईरान, दक्षिण पूर्व में जावा, सुमात्रा आदि सुदूर क्षेत्रों तक पदयात्रा कर कालकाचार्य जी ने धर्म का सर्वत्र उद्योत कर जिनशासन की महती प्रभावना की।
इतिहासकारों के अनुसार, शकों ने उज्जयिनी पर शासन स्थापित कर लिया था, किंतु गर्दभिल्ल राजा के पुत्र विक्रमादित्य ने बड़े होकर मालव देश के सहयोगियों के साथ मिलकर पुनः शकों को हरा दिया और राज्य सत्ता प्राप्त की। यह घटना वीर निर्वाण संवत् 470 में हुई। तभी से विक्रम राजा के नाम पर विक्रम संवत् प्रारंभ हुआ। वीर संवत् और विक्रम संवत में 470 वर्ष का ही अंतर रहता है।
महावीर पाट परम्परा