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" जैसी हालत पिताजी की हुई, वैसी भी मेरी होगी । परानुशासित व्यक्ति को सुख की अनुभूति नहीं होती। राज्य के काम न ही इस लोक का सुख हैं, न ही परलोक का।" इस प्रकार का सतत् चिन्तन करते-करते स्थूलिभद्र में वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए। उसने संसार के सब प्रपंचों को छोड़ आत्मकल्याण का निश्चय दृढ़ कर लिया। उन्होंने तत्क्षण ही केशलोच कर एवं रत्नकंबल के फलियों का ओघा (रजोहरण) बनाकर साधु रूप में प्रकट हुए एवं कहा
“मैं राग का नहीं, त्याग का उपासक बनना चाहता हूँ ।" यह कहकर वह राजप्रासाद से बाहर निकलकर कोशा वेश्या की नहीं, बल्कि जंगल की ओर चल पड़े। उसके चिंतन में वासना का स्थान पूर्णरूप से वैराग्य ने ले लिया था। जैनाचार्य संभूतविजय जी के चरणों में वह उपस्थित हुआ। आचार्य श्री जी ने उसे मुनिधर्म का उपदेश दिया।
फलतः 30 वर्ष की आयु में वी. नि. 146 (वि.पू. 324, ई. पू. 381 ) में आचार्य संभूतविजय जी के पास स्थूलिभद्र ने विधिवत् दीक्षा अंगीकार की ।
शासन प्रभावना :
आचार्य संभूतविजय जी की श्रमण मंडली में स्थूलिभद्र अत्यंत गुणवान् श्रमण थे। उन्होंने आगमों का गंभीर अध्ययन किया तथा मुनिचर्या का प्रशिक्षण लिया। धैर्य, समता आदि गुणों का विकास कर वे संभूतविजय जी के विश्वासपात्र बन गए। एक बार चातुर्मास आने पर स्थूलिभद्र ने गुरुदेव से कोशा वेश्या के घर चातुर्मास की आज्ञा माँगी । स्थूलिभद्र पर अत्यंत विश्वास होने से गुरुदेव ने 'तहत्ति' कहकर आज्ञा प्रदान की। वर्षा ऋतु, 84 आसन चित्रित चित्रशाला, षट् रसयुक्त भोजन, लावण्ययुक्त कोशा वेश्या - ये किसी में भी भोग की वांछा जागृत करने में सक्षम थे, किन्तु मुनि स्थूलभद्र अब तन-मन से भोगी से योगी बन चुके थे। स्थूलभद्र के आगमन से कोशा वेश्या को लगा कि पहले वाले स्थूलभद्र वापिस आ गए, किंतु मुनि स्थूलभद्र ने अपनी मर्यादा बताते हुए चातुर्मास की अनुमति माँगी। कोशा को लगा भले ही अभी ये योगी रूप में आए हैं, किंतु यहाँ रहकर मैं पुनः इन्हें भोगी बना ही दूंगी। चातुर्मास काल में वह चित्रशाला कामस्थल से धर्मस्थल बन गई।
कोशा प्रतिदिन बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित होकर उनके समक्ष आती, कामोत्तेजक नृत्य करती, पूर्व भोगों का स्मरण कराती किंतु स्थूलिभद्र अपने व्रतों में हिमालय की तरह अचल थे। ब्रह्मचर्य का तेज उनके ललाट पर चमक रहा था। उनकी संयम साधना की सर्वोत्कृष्ट परीक्षा में वे सफल हो गए। आखिरकार कोशा हार गई। उसके सभी प्रयास विफल हुए। वह एक संयमी महावीर पाट परम्परा
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