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________________ की साधना को भंग करने का प्रयत्न करने के लिए स्वयं को धिक्कारने लगी। जिस तरह जले हुए लोहे पर हथौड़ा मारते हैं, उसी प्रकार स्थूलिभद्र मुनि ने कोशा को इस प्रकार प्रतिबोधित किया, इस प्रकार धर्मोपदेश दिया कि कोशा जैसी वेश्या भी अध्यात्म के मर्म को समझकर व्रतध परिणी श्राविका बनी और विकल्प के साथ जीवनभर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया। इस प्रकार काजल की कोठरी में रहकर भी मुनि स्थूलिभद्र न केवल बेदाग रहे, बल्कि अपनी प्रतिबोध शक्ति से जिनशासन की भूरि-भूरि प्रभावना की। चातुर्मास समाप्त होने के बाद जब वे पुनः संभूतविजय जी के पास लौटे, तब आचार्यश्री 7-8 कदम सामने चलकर आए और 'दुष्कर-दुष्कर क्रिया के साधक' कहकर कामविजेता स्थूलिभद्र का सम्मान किया। समय के प्रवाह में चलते-चलते संभूतविजय जी के देवलोक प्रस्थान एवं दुष्काल आगमन से श्रुतज्ञान की धारा छिन्न-भिन्न हो रही थी, तब दृष्टिवाद (14 पूर्व का ज्ञान) विच्छेद होता जा रहा था। संघ के निवेदन से भद्रबाहु स्वामी जी ने 500 श्रमणों को नेपाल में अत्यंत दुष्कर दृष्टिवाद की वाचना देनी स्वीकार की। एक-एक करके 499 मुनि वाचना को ग्रहण न कर पाने के कारण चले गए। केवल एक स्थूलिभद्र जी ही रहे। आठ वर्षों तक सतत् वाचना लेने के बाद एक दिन स्थूलिभद्र जी ने भद्रबाहु स्वामी जी से पूछा – मैंने 8 वर्षों में कितना अध्ययन किया है और अब कितना शेष है? आचार्य भद्रबाहु ने कहा - मुने! सर्षप मात्र जितना ग्रहण किया है, मेरु जितना अवशिष्ट (शेष) है। दृष्टिवाद के अथाह ज्ञान सागर से अभी तक बिंदु मात्र लिया है।" आर्य स्थूलिभद्र ने निवेदन किया - प्रभो! मैं अगाध ज्ञान की सूचना पाकर हतोत्साहित नहीं हूँ, पर मुझे वाचना अल्पमात्रा में मिल रही है। ऐसे में मेरु जितना ज्ञान कैसे ग्रहण करूँगा?" तब आचार्यश्री ने आश्वासन दिया कि मेरी महाप्राणध्यान साधना सम्पन्नप्रायः है। तत्पश्चात् मैं तुम्हें रात-दिन यथेष्ट समय वाचना के लिए दूंगा। आर्य स्थूलिभद्र नै 10 पूर्वो की वाचना ग्रहण कर ली। तब वे पाटलिपुत्र पधारे। यक्षा आदि (स्थूलिभद्र जी की बहन) साध्वियाँ भद्रबाहु स्वामी जी को वंदनार्थ पधारी उस समय स्थूलिभद्र जी एकांत में ध्यानरत थे। आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी के पास अपने ज्येष्ठ भ्राता मुनि को न देखकर साध्वी जी ने उनसे जिज्ञासा रखी कि हमारे सांसारिक भाई मुनि स्थूलिभद्र कहां हैं? आचार्य श्री ने स्थूलिभद्र के स्थान का निर्देश किया। यक्षा आदि साध्वियाँ वहाँ पहुँची। उन्हें आते देखकर स्थूलिभद्र जी ज्ञान का चमत्कार दिखाने के लिए कुतूहलवश सिंह (शेर) महावीर पाट परम्परा 37
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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