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________________ का रूप बनाकर बैठ गए। वहाँ शेर को देखकर साध्वियाँ डरकर पुनः भद्रबाहु स्वामी जी के पास आकर बोली कि महाराज ! वहाँ सिंह बैठा है। लगता है उसने हमारे भाई का भक्षण कर लिया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने समग्र स्थिति को ज्ञानोपयोग से जाना और कहा कि वहाँ पुनः जाओ । स्थूलभद्र वहीं हैं । साध्वीजी पुनः उसी स्थान पर गई । इस बार वहां सिंह के स्थान पर स्थूलभद्र जी ही थे। बहन साध्वियों ने हर्षातिरेक होकर स्थूलिभद्र जी को वंदन किया। इसी प्रकार अपने विद्या बल से इन्हीं दिनों में स्थूलिभद्र जी ने अपने बचपन किसी ब्राह्मण मित्र को गड़े हुए धन के बारे में बताया। उसके बाद स्थूलभद्र जी श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी जी के पास वाचना लेने आए। आचार्यश्री फरमाया वत्स! ज्ञान का अहं आत्म विकास में बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर स्वयं को ज्ञान के लिए अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब से तुम वाचना के योग्य नहीं हो। " स्थूलभद्र जी के पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्हें अपनी भूल समझ आ गई। उन्होंने बहुत क्षमा माँगी, बहुत रूदन किया किंतु भद्रबाहु स्वामी जी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब सकल संघ ने स्थूलभद्र को ही दृष्टिवाद के लिए योग्य जानते हुए आचार्य श्री जी से पुनर्विचार करने हेतु कहा। तब आचार्य भद्रबाहु ने फरमाया मुनि स्थूलभद्र अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न हैं । वे कंदर्पविजेता तो थे ही, अब दर्पविजेता भी हो गए। किंतु भविष्य में इनसे मंद सत्त्व साधक होंगे। पात्रता के अभाव में ज्ञानदान ज्ञान की आशातना है। इसी उद्देश्य से मैं स्थूलिभद्र को अंतिम 4 पूर्व केवल मूल से पढ़ाऊंगा, अर्थ नहीं एवं ये 4 पूर्व सूत्ररूप में भी तुम आगे किसी को नहीं देना। इस प्रकार स्थूलिभद्र जी सूत्र की अपेक्षा से 14 पूर्वधर थे, किंतु अर्थ की अपेक्षा से 10 पूर्वधर बने । - इसी काल में आचार्य स्थूलिभद्र जी की बहन साध्वी यक्षा महाविदेह क्षेत्र में विराजित सीमंधर स्वामी जी के मुख से 4 अध्ययन भरत क्षेत्र में लाई थी। श्रीयक मुनि तपस्या नहीं कर पाते थे, लेकिन संवत्सरी के दिन साध्वी यक्षा ने नवकारसी, पोरिसी करा - कराके उनसे उपवास कराया लेकिन उसी दिन श्रीयक मुनि का कालधर्म हो गया। साध्वी यक्षा आत्मग्लानि से भर गई कि उनके कारण ही मुनिश्री की मृत्यु हुई। संघ ने बहुत समझाया कि ऐसा नहीं है। उनका तो आयुष्य पूरा हो गया था। तब साध्वी यक्षा नहीं मानी और श्रमणसंघ से प्रायश्चित मांगा। साध्वी जी ने कहा “यदि तीर्थंकर परमात्मा साक्षात् कहें कि मैं निर्दोष हूं, तभी मेरा हृदय शांत होगा । " संघ ने शासनदेवी की आराधना के लिए महावीर पाट परम्परा 1 38
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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