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आत्म-क्रांतियुक्त निर्णय से 500 चोरों के संपूर्ण स्तेनदल में भी क्रांति घटित हो गई। इस प्रतिबोध से वे भी जंबू कुमार की भांति दीक्षा लेने के लिए आतुर बने।
सुविशाल मुमुक्षुओं से सुसज्जित वरघोड़ा अगले ही दिन निकल गया। मगध के राजा कोणिक भी चतुरंगिनी सेना के साथ इस महोत्सव पधारे। दीक्षार्थी युवायोगी जंबू कुमार को संबोधित करते हुए सम्राट ने कहा, - "धीर पुरुष जंबू! तुम्हारा जन्म कृतार्थ हुआ। मेरे लिए कुछ योग्य कार्य हो तो मुक्त भाव से कहो।" जंबू कुमार ने प्रभव की ओर संकेत करते हुए कहा - "राजन! यह प्रभव चोर भी वैराग्य भाव को प्राप्त कर मेरे साथ मुनि बनने जा रहा है। आपके राज्य में इसने जो भी अपराध किए हैं, उसके लिए आप आज से इसे क्षमा करें।" कोणिक ने प्रेम भाव से प्रभव चोर के सभी अपराधों को क्षमा किया एवं निरतिचार संयम जीवन की कामना की।
जंबू कुमार के साथ ही वीर नि.1 में प्रभव ने सर्वविरति धर्म को स्वीकार कर सुधर्म स्वामी जी के पास दीक्षा ग्रहण। एक चोराधिपति से किस प्रकार प्रभव आत्म चेतना का अधिपति बन गया, यह संपूर्ण आर्य निवासियों के लिए प्रेरणा एवं आदर्श का केन्द्र बन गया। परिशिष्ट पर्व के अनुसार, प्रभव की दीक्षा जंबू की दीक्षा के एक दिन बाद हुए। अन्यमतानुसार दोनों की दीक्षा एक ही दिन होने पर भी जंबू स्वामी जी को दीक्षा का वासक्षेप पहले मिला। उम्र में प्रभव स्वामी बड़े थे, किंतु दीक्षा में जंबू स्वामी जी बड़े थे।
शासन प्रभावना :
मुनि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् प्रभव स्वामी जी ने विनयपूर्वक सुधर्म स्वामी जी - जंबू स्वामी जी के पास 11 अंगों और 14 पूर्वो का सम्यक् रूप से अध्ययन किया। कठोर तपश्चर्या से उन्होंने अपने कर्मों की निर्जरा की। जंबू स्वामी जी की 64 वर्ष तक अहर्निश सेवा करते हुए श्रमण धर्म में उत्तरोत्तर उत्थान को प्राप्त हुए। वीर निर्वाण संवत् 64 में आर्य जंबू स्वामी जी द्वारा आचार्य पद प्रदान किए जाने पर आचार्य प्रभव स्वामी जी ने युगप्रधान आचार्य के रूप में जिनशासन की महती प्रभावना की। शास्त्रों में कहा गया है - 'जे कम्मे सूरा, ते धम्मे सूरा' और उनका जीवन इसका श्रेष्ठ उदाहरण बना। ___ आचार्य का एक प्रमुख दायित्व भावी पट्टधर का निर्वाचन होता है। एक बार रात्रि के समय आचार्य प्रभव स्वामी योगसमाधि लगाए ध्यानमग्न थे। ध्यान की परिसमाप्ति के बाद सहसा
महावीर पाट परम्परा
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