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उनके मन में विचार आया कि उनके पश्चात् प्रभु वीर के इस धर्मसंघ का सही संचालन करने हेतु पट्टधर किसे बनाया जाए? उपयोग देने पर भी उन्हें श्रमण संघ व श्रावक संघ में गणभार वहन योग्य कोई व्यक्ति दृष्टिगत नहीं हुआ। अतः अपने ज्ञानबल से उन्होंने किसी अन्य व्यक्ति को खोजने का प्रयत्न किया। उन्हें राजगृह नगरी में यज्ञनिष्ठ ब्राह्मण शय्यंभव भट्ट दिखाई दिया।
दूसरे ही दिन आचार्य प्रभव स्वामी अपने साधुओं के साथ राजगृही नगरी पधारे। जैन मत के कट्टर द्वेषी शय्यंभव भट्ट को किस प्रकार जिनधर्म का उपासक बनाया जाए, इसका चिंतन मनन कर उन्होंने दो साधुओं को तैयार किया। आचार्य प्रभव धर्मचर्चा से शय्यंभव भट्ट को जैनधर्म के प्रति प्रभावित कर सकते थे। पर उन्हें प्रभव स्वामी जी के सामने शांत भाव से उपस्थित करना सरल कार्य नहीं था। अतः धर्मसंघ के हित की भावना से उन्होंने यह युक्ति बनाई।
आचार्य प्रभव स्वामी जी के आदेशानुसार दो साधु शय्यंभव भट्ट के यज्ञ में गए। उन्होंने द्वार पर खड़े होकर धर्मलाभ कहा एवं भिक्षा की याचना की। यज्ञ में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने जैन मुनियों को आहार देने का निषेध किया एवं घोर अपमान किया। वे श्रमण बोले - "अहो कष्टमहोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि" अहो! यह अत्यंत दु:ख की बात है, तत्त्व को सही रूप में समझा नहीं जा रहा। तत्त्व को नहीं जानने की बात महाभिमानी उद्भट्ट विद्वान शय्यंभव के मस्तिष्क में टकराई। वह भली-भाँति जानता था कि जैन मुनि कैसे भी हों, वे कभी झूठ नहीं बोलते। दोनों मुनियों के जाते ही शय्यंभव हाथ में तलवार लेकर अपने गुरु (अध्यापक) के पास पहुंचे और तत्त्व का स्वरूप पूछा। अध्यापक ने कहा - "स्वर्ग व मोक्ष देने वाले वेद ही परम तत्त्व हैं।" शय्यंभव भट्ट ने अत्यंत क्रुद्ध स्वर में कहा - "जैन मुनि कभी झूठ नहीं बोलते। सच-सच बोलो अन्यथा तुम्हारा शिरच्छेद कर दूंगा।" ___अध्यापक समझ गए कि अब सत्य बात बताए बिना प्राणरक्षा असंभव है। उन्होंने कहा - "अर्हत् भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म ही सत्य और वास्तविक धर्म है। अरे! तू जो यह यज्ञ कर रहा है, उस यज्ञ के कीलक के नीचे अर्हत् श्री "शान्तिनाथ जी" की प्रतिमा है। यज्ञ से कुछ नहीं होता, उस प्रतिमा के प्रभाव से शांति होती है।" यह सब सुन शय्यंभव किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया। उसने यज्ञ के कीलक के नीचे से जैन धर्म के 16वें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ जी की प्रतिमा निकाली। उस सौम्य वीतरागी परमात्मा की प्रतिमा देख उन्हें प्रतिबोध हुआ। यज्ञ सामग्री अध्यापक को पकड़ाकर वे जैन श्रमणों की खोज में निकल पड़े एवं आचार्य प्रभव स्वामी जी के पास पहुँचे। आचार्य प्रभव स्वामी जी ने उन्हें यज्ञ का यथार्थ स्वरूप समझाया एवं आर्हत् (जैन)
महावीर पाट परम्परा
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