SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17. आचार्य श्रीमद् वृद्धदेव सूरीश्वर जी आत्मदिव्यता देव पद, असंयम पंक धिक्कार। बोधिवृक्ष गुरु वृद्धदेव जी, नित् वंदन बारम्बार॥ चैत्यवास अर्थात् साधु द्वारा मंदिरों में बसेरा इस युग में उद्भव में आया। प्रभावक चरित्र के अनुसार ये सर्वप्रथम अपने जीवन के पूर्वार्ध में चैत्यवासी श्रमण हुए किंतु आचार्य समन्तभद्र सूरि जी के सद्बोध एवं सन्मार्ग दर्शन से वे विशुद्ध संयम एवं आचार प्रधान श्रमण हुए। जन्म एवं दीक्षा : सप्ततिदेश (सिरोही और मारवाड़ की सरहद) में कोरंटपुर (वर्तमान में शिवगंज के पास कोरटा) नगर था। उपाध्याय देवचन्द्र नामक एक विद्वान तथा संयमी श्रमण को कोरंटपुर के भगवन् महावीर जिनालय पर अत्यंत आसक्ति हो गई। अतः उपाध्याय देवचंद्र जी ने अपने शिष्यों को विचरण की आज्ञा दी किंतु स्वयं उस मंदिर में रहने लगे। उस मंदिर की संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं देखते। ___ निष्कारण एक जगह रहना, साधु धर्म के लिए अकल्पनीय है, ऐसा वे जानते थे किंतु उस जिनमंदिर से राग का ऐसा अपनत्व बन चुका था कि वे चैत्यवासी बन गए थे। एक बार उत्कृष्ट संयमी आ. समन्तभद्रसूरि जी वाराणसी से विहार कर शत्रुजय गिरिराज की ओर जा रहे थे। ग्रामानुग्राम विचरण करते उनका पदार्पण कोरंटपुर हुआ। श्रीसंघ ने आचार्यश्री का भव्य स्वागत किया। आचार्यश्री को उपाध्याय देवचन्द्र के विषय में ज्ञात हुआ। उपाध्याय देवचन्द्र की पात्रता एवं विलक्षणता की अनुभूति कर आचार्य समंतभद्र सूरि जी ने उपाध्याय देवचन्द्र को अपने हितोपकारी व मधुर उपदेश से विशुद्ध संयम धर्म की महत्ता तथा मार्ग समझाया। उपाध्याय देवचन्द्र जी ने आचार्य श्री जी का उपदेश स्वीकार कर कर्मनिर्जरा एवं शासन सेवा के उद्देश्य से चैत्यवास का सदा के लिए परित्याग किया एवं आ. समंतभद्र सूरि जी का सामीप्य स्वीकार किया। महावीर पाट परम्परा 74
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy