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में मंत्रोच्चारण बंद करने पड़ते थे। एक बार सभी साधुगण मंत्रपूर्वक दरवाजा बंद करना भूल गए। उपाश्रय के द्वारा खुले देख शाकिनी ने वहाँ उपसर्ग देने हेतु प्रवेश किया। आचार्य धर्मघोष सूरि जी पाट पर बैठकर ध्यान कर रहे थे। जागृत अवस्था में बैठे-बैठे गुरुदेव ने निडर होकर सिंह की भाँति गर्जना की - 'मेरे साधुओं को परेशान करना नहीं। चली जा।' शासन रक्षा के उद्देश्य से चारित्र की सुवास के धनी आचार्यश्री की रक्त रंजित आँखों से प्रभावित हो शाकिनी सदा के लिए चली गई। ___ आचार्य धर्मघोष सूरि जी पुण्यप्रभावी एवं चमत्कारी सिद्धपुरुष थे। एक बार प्रभासपाटण के समुद्र किनारे खड़े रहकर उन्होंने 'मंत्रमय समुद्रस्तोत्र' बनाया। उसी समय समुद्र की ऊंची लहरों के साथ ही अनेक रत्न उछलकर बाहर आ गए। उन रत्नों को जिनमंदिर में भेंट कराया गया। आचार्यश्री जी ने मंत्र ध्यान से शत्रुजय के कपर्दी यक्ष को स्मरण किया और उसे प्रभासपाटण में अमूल्य जिन प्रतिमाओं का अधिष्ठायक बनाया।
इसी प्रकार उज्जयिनी में एक योगी जैन साधुओं को रहने नहीं देता था। जब धर्मघोष सूरि जी वहाँ आए तो योगी ने मुनिवृंदों से बहस की और कटाक्ष करने लगा। उसने साधुओं को दांत दिखाए तो साधुओं ने उसे कोहनी दिखाई। साधुओं ने यह सब वृत्तांत अपने गुरु धर्मघोष सूरि जी को कहा योगी ने उपाश्रय में विद्याबल से बहुत चूहे उत्पन्न कर दिए। सब साधु डर गए। आचार्यश्री ने घड़े का मुख वस्त्र से ढक कर ऐसा मंत्र जपा की, योगी भागता हुआ आचार्यश्री के पैरों में पड़ गया और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा। भद्रपरिणामी जान सभी ने क्षमा दी। आचार्य धर्मघोष सूरि जी की अध्यक्षता में पेथड़ मंत्री ने 7,00,000 श्रावकों को साथ लेकर शत्रुजय-गिरनार का भव्यातिभव्य छ:री पालित संघ निकाला था। शत्रुजय तीर्थ पर भगवान् आदीश्वर जिनप्रासाद के शिखर पर सुवर्णकलश चढ़ाया गया एवं मार्ग में आए सभी मंदिरों पर सोने-चांदी की ध्वजा चढ़ाई गई।
जैन शासन में आचार्य के दो विशेष गुण हैं - भीम और कान्त। धर्मघोष सूरि जी के जीवन में यह दोनों गुण परिलक्षित होते हैं - जब आवश्यकता रही तो उन्होंने अत्यंत करुणा एवं वात्सल्य के भाव से कार्य किए। जब आवश्यकता रही, तो शासन रक्षा के लिए, सत्य प्ररूपणा के लिए उग्र भावों का भी प्रदर्शन किया। उनके जीवन में शासन प्रभावना के कई दृष्टान्त मिलते हैं।
महावीर पाट परम्परा
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