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33. आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी
मननशील सूरि मानदेव जी, उपधान विधि आभार । महामनीषी महाप्राज्ञ, नित् वंदन बारम्बार ॥
आचार्य मानदेव सूरि जी नाम के कई आचार्य जैन परम्परा के इतिहास में हुए। ये आ. मानदेव सूरि जी भगवान् महावीर के 33वें पट्टालंकार हुए।
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विक्रम की नवमीं सदी के उत्तर भाग में हुए मानदेव सूरि जी ने प्रद्युम्न सूरि जी के कालध र्म पश्चात् जैन संघ का कुशल संचालन किया । श्रावक-श्राविकाओं के लिए अति उपयोगी 'उपधान वाच्य' (उपधान विधि ) ग्रंथ लिखकर उपधान तप की शुद्ध विधि बताई । पंचमंगल-महाश्रुतस्कंध यानि नवकार मंत्र एवं अन्य सूत्रों के वांचन के अधिकार के लिए उपध न तप एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्रिया है।
अल्प आयुष्य होने के बाद भी जिनशासन के महनीय कार्य करते हुए वे स्वर्गवासी हुए । इनके साम्राज्य काल में आचार्य धनेश्वर सूरि जी जैसे विद्वान आचार्य भी हुए।
समकालीन प्रभावक आचार्य
आचार्य धनेश्वर सूरीश्वर जी :
आ. धनेश्वर सूरि जी ने वल्लभी नगरी के बौद्ध राजा शिलादित्य को उपदेश देकर जैन बनाया। राजा शिलादित्य के निमित्त से आचार्यश्री ने वि. सं. 852 में 'शत्रुंजय माहात्म्य' नामक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रचना की, जिसमें शाश्वत तीर्थ - सिद्धाचल यानि शत्रुंजय का विशाल इतिहास, महिमा एवं प्रभाव का वर्णन है। वे मूलत: प्राचीन चैत्रपुरी गच्छ से संबंधित थे किंतु इनसे इनके शिष्यों ने धनेश्वर गच्छ लिखना प्रारंभ किया । इस गच्छ का आयुष्य कम ही था । जैन स्मारक (तीर्थ) एवं जैन साहित्य ( आगम शास्त्र) का विलुप्त गौरव पुनः लाने में धनेश्वर सूरि जी ने सकारात्मक प्रयास किए।
महावीर पाट परम्परा
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