SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 34. आचार्य श्रीमद् विमलचन्द्र सूरीश्वर जी सम्यक्त्व प्रकाशक मिथ्यात्व विनाशक, गामी उग्र विहार। हसदृष्टि विमलचन्द्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य मानदेव सूरि जी के पाट पर हुए आचार्य विमलचन्द्र सूरि जी विक्रम की दसवीं शताब्दी के प्रभावक आचार्य एवं वीर-परम्परा के 34वें सुयोग्य पट्टधर हुए। वे उग्रविहारी थे। भारतभर में अनेकों जगह विचरण कर अपनी प्रतिबोधशक्ति से राजा-प्रजा को जैनत्व के संस्कार प्रदान कर जिनशासन की महती प्रभावना की। शासन प्रभावना : आ. विमलचन्द्र सूरि जी को चित्रकूट (चित्तौड़) पर्वत पर देवी पद्मावती की सहायता से 'सुवर्णसिद्धि' विद्या प्राप्त हुई। चित्तौड़ का राजा अल्लटराज इनका परम उपासक था। चित्तौड़ के किले में भी जिनमंदिर की प्रतिष्ठा उन्होंने कराई। वे समर्थवादी थे। ग्वालियर (गोपगिरि) में राजा मिहिरभोज की सभा में शास्त्रार्थ में अपनी विद्वत्ता, तर्कशक्ति व बुद्धिबल से सभी प्रतिद्वंदियों को परास्त कर दिया। उस क्षेत्र के राजा भी इनके भक्त बने। ग्वालियर के किले में भी विमलचंद्र सूरि जी ने जिनालय की अंजनश्लाका-प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। दीर्घायुष्य के धनी आचार्यश्री उग्रविहारी थे। अपने शिष्य परिवार के साथ उन्होंने पूर्व देश में मथुरा, सम्मेतशिखर जी इत्यादि तीर्थों की अनेक बार यात्रा की। एक बार वे मथुरा से विहार कर सांचोर पधारे। वहाँ उन्होंने भीनमाल के शिवनाग व्यापारी के तपस्वी व पौषधधारी पुत्र-वीर को देखा। उन्होंने जाना कि इसकी आयुष्य अल्प है किंतु यह आसन्न भव्यात्मा है। उपदेश देकर उन्होंने उसे वैराग्य पथ पर अग्रसर किया एवं नाम वीर मुनि रखा गया। थराद में चैत्य में ऋषभदेव जी के दर्शन कर उन्होंने वीर मुनि को अंगविज्जा ग्रंथ प्रदान किया एवं "यह ग्रंथ तुम्हें जल्दी आए", ऐसा आशीर्वाद दिया। तीन दिनों में मुनि ने उस बृहद् ग्रंथ का अर्थ सहित अध्ययन कर स्मरण कर लिया। महावीर पाट परम्परा 107
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy