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गुजरात, सौराष्ट्र, मारवाड़, बंगाल, मालवा इत्यादि अनेक क्षेत्र में विमलचन्द्र सूरि जी ने विचरण किया। वे 100 वर्ष की आयु में शत्रुजय तीर्थ पधारे जहाँ वे वि.सं. 980 में अनशन पूर्वक स्वर्गवासी बने। उनके पट्टधर आ. उद्योतन सूरि जी हुए।
• समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य सिद्धर्षि :
गुजरात के श्रीमालपुर में शुभंकर सेठ की पत्नी लक्ष्मी की कुक्षि से सिद्ध (सिद्धर्षि) का जन्म हुआ एवं धन्या नामक कन्या से विवाह हुआ। सिद्ध को छूत (जुए) का नशा था। __ वह प्रायः आधी रात में घर लौटता था। पत्नी को भी सिद्ध की प्रतीक्षा में रात्रि जागरण करना पड़ता था। पति की इस आदत से पत्नी खिन्न रहने लगी। एक दिन सासू ने बहु की उदासी का कारण पूछा। बहु ने सिद्ध के जुआ खेलने की आदत और रात को देर से आने की बात बता दी। सासू ने कहा कि आज तुम सो जाना। रात्रि जागरण मैं करूंगी।
उस रात्रि उसकी माँ ने अपने पुत्र के लिए दरवाजा नहीं खोला और कहा “जहाँ द्वार खुला मिले, वहाँ चले जा।" सिद्ध वापस चल पड़ा। सिद्ध उपाश्रय पहुँच गया। रात्रि के समय सिद्ध को केवल उपाश्रय के द्वार ही खुले मिले। अपने जीवन से सिद्ध तंग आ गया था। वहाँ गर्षि के उपदेश से प्रभावित हो उसने मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। आ. हरिभद्र उनके दीक्षा गुरु थे।
एक बार सिद्धर्षि को बौद्धों के पास से बौद्ध दर्शन पढ़ने की इच्छा हुई। गुरु की मनाही के बाद भी वो चले गए। वहाँ वे बौद्ध साधु बन गए। उन्होंने सोचा कि अपने जैन गुरु को बोलकर आना चाहिए कि अब मैं बौद्ध भिक्षु बन गया हूं। जब वे हरिभद्र सूरि जी के पास आए, तो पुनः जैन मुनि बन गए। फिर पुनः बौद्ध भिक्षु से मिलने पर बौद्ध भिक्षु बन गए। इस प्रकार उन्होंने 21 बार जैनों और बौद्धों के बीच आवृत्ति की। बाइसवीं बार में अंततः गुरुदेव द्वारा ललित विस्तरा वृत्ति पढ़ाने पर सिद्धर्षि गणी जैन धर्म में सदा के लिए स्थिर हुए। वि. सं. 962 में भीनमाल में आ. सिद्धर्षि ने 'उपमितिभवप्रपञ्च कथा' नामक सुंदर ग्रंथ रचा।
महावीर पाट परम्परा
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