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5. आचार्य श्रीमद् यशोभद्र सूरीश्वर जी
सौम्य स्वभावी, गुणानुरागी, मिथ्यात्व मत संहार।
यशस्वी गुरुवर यशोभद्र जी, नित् वंदन बारम्बार॥ अपने विशद ज्ञान प्रकाश से अंग, मगध और विदेह आदि क्षेत्रों को आलोकित कर ब्राह्मण परम्परा पर भी प्रभुत्व प्राप्त करने वाले श्रुतकेवली युगप्रधान आचार्य यशोभद्र सूरि जी शासनपति महावीर स्वामी जी के पाँचवे पट्टविभूषक बने। चतुर्दश पूर्व की सुविशाल ज्ञानराशि को उन्होंने चारित्राचार में आत्मसात् किया। जन्म एवं दीक्षा :
वीर निर्वाण 62 (ईस्वी पूर्व 465) में पाटलीपुत्र के तुंगिकायन गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ। वे कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे और विशाल यज्ञों का सफलतापूर्वक संचार करते थे, किंतु आचार्य शय्यंभव सूरि जी के सत्संग योग से यशोभद्र का हृदय जिनेश्वर परमात्मा की वाणी से विरक्ति की धारा में प्रवाहित हो उठा।
ब्राह्मण समाज पर उनके प्रभावशाली व्यक्तित्त्व की छाप थी किंतु आचार्य शय्यंभव के प्रभावक प्रवचनों से प्रेरित होकर 22 वर्ष की युवावस्था में वी.नि. 84 (वि.पू. 386) में उनके पास जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की। शासन प्रभावना :
आचार्य शय्यंभव सूरि जी के चरणों में विनयवंत रहकर यशोभद्र मुनि ने संपूर्ण 12 अंगों का गहन अध्ययन किया। उनके स्वर्गवास पश्चात् चतुर्विध संघ के वहन का दायित्व उन पर आया। वी.नि. 98 में वे आचार्य पद पर आसीन हुए। मगध, अंग और विदेह क्षेत्रों में अहिंसा धर्म का उन्होंने खूब प्रचार किया। उस समय ब्राह्मण वर्ग द्वारा यज्ञों-हवनों का प्रचार पराकाष्ठा पर था। ऐसे समय में ब्राह्मण वर्ग में भगवती अहिंसा धर्म का प्रचार कर अध्यात्म की ओर उन्मुख किया। तत्कालीन राजवंशों पर भी आचार्य यशोभद्र सूरि जी का बहुत प्रभुत्व था।
मगध के नंदवंश के राजाओं तथा मंत्रियों को भी उन्होंने अहिंसा धर्म का महत्त्व समझाया
महावीर पाट परम्परा