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________________ 30. आचार्य श्रीमद् रविप्रभ सूरीश्वर जी श्रमण सहस्त्रांशु सूरिवर, रवि भासे अन्धकार। आचार्यदेव रविप्रभ सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ विक्रम की आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए आचार्य रविप्रभ सूरि जी भगवान् महावीर की देदीप्यमान पाट परम्परा के 30वें समर्थ पट्टधररत्न हुए। वि.सं. 700 (वीर निर्वाण सं. 1070) में रविप्रभ सूरि जी ने नाडोल नगर के मुख्य देरासर में उत्सवपूर्वक मूलनायक भगवान् श्री नेमिनाथ जी इत्यादि जिनबिंबो की अंजनश्लाका-प्रतिष्ठा कराई। सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र की जागृति हेतु उन्होंने विविध रूपों में जिनशासन की महती प्रभावना की। इनके काल में संस्कृत भाषा का अभ्युदय हो रहा था। अतः आगमों की विस्तृत व्याख्या हेतु नियुक्ति एवं भाष्य के बाद गद्यमय प्राकृत प्रधान चूर्णि साहित्य की रचनाएं प्रारंभ हुई। युगप्रधान आ. स्वाति, आ. सिद्धसेन गणि, आ. जिनदास गणि इत्यादि इनके समकालीन थे। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य जिनदास गणि महत्तर : जैन साहित्य की परम्परा में जिनदास महत्तर जी का विशिष्ट स्थान हैं। इनके सांसारिक पिताश्री का नाम 'नाग' एवं माताश्री का नाम 'गोपा' था। कोटिकगण-वज्रशाखा के गोपाल गणि महत्तर एवं प्रद्युम्न क्षमाश्रमण इनके दीक्षागुरु एवं शिक्षागुरु थे। संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में भावप्रधान व्याख्या साहित्य - गद्य शैली में लिखे चूर्णि साहित्य में चूर्णिकार श्री जिनदास गणि महत्तर का विशिष्ट अवदान हैं। आगम प्रभाकर मुनिराज पुण्य विजय जी के अनुसार इनके द्वारा लिखित प्रमुख 3 चूर्णियाँ हैं1) नन्दी सूत्र चूर्णि - यह जिनदास महत्तर जी की प्रथम रचना संभव है। ऐतिहासिक दृष्टि महावीर पाट परम्परा 99
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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