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39. आचार्य श्रीमद् यशोभद्र सूरीश्वर जी
आचार्य श्रीमद् नेमिचन्द्र सूरीश्वर जी
योग-क्षेम निपुण यशोभद्र जी, वैराग्य रस आगार।
ज्ञाननिधान श्री नेमिचन्द्र जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने जिन 8 श्रमण भगवन्तों को आचार्य पद प्रदान किया, उनमें से यशोभद्र सूरि जी एवं नेमिचंद्र सूरि जी को शक्तिशाली-समर्थ एवं एक-दूसरे का पूरक जानकर दोनों गुरुभाईयों को अपनी पाट पर स्थापित किया। अतः दोनों भगवान् महावीर की गौरवशाली परम्परा के 39वें पट्टप्रभावक बने। जन्म एवं दीक्षा :
आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी बृह्दगच्छीय आचार्य उद्योतन सूरि जी के प्रशिष्य थे। उनकी दीक्षा उद्योतन जी के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव द्वारा हुई एवं उनका नाम- मुनि देवेन्द्र रखा गया। दीक्षा के अल्प काल में गणि पद प्राप्त कर देवेन्द्र गणी ने अनेकों ग्रंथ रचे। आचार्य पद पर आरूढ़ होने पर उनका नाम सर्वदेव सूरि जी ने - नेमिचंद्र सूरि रखा।
आचार्य यशोभद्र सूरि जी के दीक्षा गुरु विजयचन्द्र सूरि जी थे। दोनों का विहार क्षेत्र प्रमुखतः गुजरात व राजस्थान रहा। समुदाय के अन्य गुरु भगवन्त जैसे प्रद्युम्न सूरि जी के शिष्य परिवार आदि से भी उनका अच्छा सम्बन्ध था। साहित्य रचना :
आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी की गणना जैन विद्या के मनीषी टीकाकारों में होती है। वे संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं के अधिकृत विद्वान थे। जैन धर्म के विविध विषयों का अध्ययन कर उसे अधिक सरस बनाने हेतु अनेक ग्रंथों का लेखन-संकलन-संपादन किया। 1) आख्यान-मणिकोश - नेमिचंद्र सूरि जी की यह प्रथम रचना है। इसमें मूल 52 गाथाएँ
है। इसके 41 अधिकार (अध्ययन) एवं 146 आख्यान (कथा आदि) हैं। देवेन्द्र गणी
महावीर पाट परम्परा
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