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22. आचार्य श्रीमद् जयदेव सूरीश्वर जी
जय गुरु जयदेव सूरि जी, विशुद्ध दर्शनाचार । जयणाधर्म के सफल प्रचारक, नित् वंदन बारम्बार ||
शासननायक भगवान् महावीर की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 22वें क्रम पर आचार्य जयदेव सूरि जी हुए । 'वीर वंशावली' नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि आचार्य जयदेव सूरि जी ने रणथंभौर नगर के उत्तुंगगिरि पर तीर्थंकर पद्मप्रभ जी की प्रतिमा की भव्य प्राण प्रतिष्ठा कराई एवं देवी पद्मावती की भी मूर्ति स्थापित करवाई ।
इनका विहार क्षेत्र प्रमुखतः मरुधर ( मारवाड़) ही रहा । अनेकानेक राजपूतों और क्षत्रियों को उपदेश देकर उन्हें जैनधर्मानुयायी बनाया एवं जयणा के काफी कार्य कराए। उस समय उपकेशगच्छ एवं कोरंट गच्छ के आचार्य अजैनों की शुद्धि कर उन्हें जैन बना रहे थे। आचार्य जयदेव सूरि जी का भी उसमें अभूतपूर्व सहयोग रहा। शासन की महती प्रभावना करते हुए वे वीर सं. 833 में स्वर्गवासी बने ।
इनके काल में वाचनाचार्य स्कंदिल सूरि जी, वाचक उमास्वाति जी इत्यादि धुरंधर विद्वान हुए ।
समकालीन प्रभावक आचार्य ●
आचार्य उमास्वाति जी :
आचार्य श्री उमास्वाति जी की स्वीकार्यता श्वेताम्बर एवं दिगंबर परम्परा में समान रूप से है। इतिहासविदों के अनुसार वे संभवतः यापनीय परम्परा से संबंधित थे। यापनीय संघ में कुछ धारणाएं श्वेताम्बरों की एवं कुछ धारणाएं दिगंबरों की थी। प्रसिद्ध तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वाति जी भी शायद इसी यापनीय संघ के धुरंधर विद्वान थे। इनका जन्म न्यग्रोधिका गांव में ब्राह्मण स्वाति की पत्नी उमा की कुक्षि से हुआ जिससे इनका नाम 'उमास्वाति' प्रसिद्ध हुआ।
वे संस्कृत भाषा के अधिकृत ज्ञाता थे । ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के कारण संस्कृत भाषा
महावीर पाट परम्परा
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