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शासन प्रभावना :
शय्यंभव भट्ट आत्मकल्याण के मार्ग पर आरूढ़ होकर संसार से संन्यास की ओर अग्रसर हुए। ब्राह्मण समाज में इस पर चर्चा प्रारंभ हुई। वे कहने लगे कि शय्यंभव भट्ट निष्ठुर-अतिनिष्ठुर हैं, जो इस भरी जवानी में पत्नी का त्याग कर दिया और जैन साधु बन गये। महिलाएं भी शय्यंभव की पत्नी को सांत्वना देने आई। नारी के लिए पति के अभाव में पुत्र का ही आलंबन (सहारा) होता है। आस-पड़ोस की स्त्रियों ने शय्यंभव की पत्नी से पूछा - बहन! क्या गर्भ की संभावना है? शय्यंभव की पत्नी ने संकोच करते हुए कहा - "मणयं" यानि हाँ, कुछ है। अनुक्रम से उसने एक पुत्र को जन्म दिया और नाम - 'मनक' रखा। ___ बालक जब 8 वर्ष का हुआ, तब एक दिन उत्सुकतावश माता से प्रश्न किया - "माँ! मैंने कभी मेरे पिता को नहीं देखा। बतलाओ मेरे पिता कौन हैं और कहाँ हैं?" माता अपने अश्रु रोक नहीं सकीं। उसने कहा - वत्स! तुम्हारे पिता का नाम शय्यंभव भट्ट है। जब तुम गर्भ में थे, उस समय तुम्हारे पिता ने श्रमणधर्म की जैन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अब वे एक जैन मुनि हैं।" माता के मुख से पिता का वर्णन सुनकर मनक के हृदय में पिता को देखने की उत्कट अभिलाषा जग गई। हठपूर्वक माता की आज्ञा लेकर वह पिता से मिलने निकल पड़ा। ___आचार्य शय्यंभव सूरि जी उस समय चम्पापुरी पधारे हुए थे। दैवयोग से बालक मणक भी पिता की खोज करता-करता अनेक नगरों-गांवों में भटका लेकिन उसके मन में पिता से मिलने की आशा कम नहीं हुई। एक दिन वह चम्पा नगरी आ पहुँचा। शौच-निवृत्ति के लिए आए एक जैन मुनि पर मनक की नजर गई। 'अवश्य ही ये मेरे पिता के सहयोगी मुनि होंगे' - ऐसा समझकर बालक मनक ने उन्हें विनयपूर्वक वंदन किया। बालक के मुख का तेज अपूर्व था। बालक ने अपना परिचय दिया एवं पूछा कि "मेरे पिता आचार्य शय्यंभव कहाँ हैं? आप उन्हें जानते हैं? मैं उनका अनुसरण करना चाहता हूँ।" वे जैन मुनि और कोई नहीं, बल्कि आचार्य शय्यंभव थे। अपने सांसारिक पुत्र को देख उनकी मनोदशा किस प्रकार की रही होगी, वह अनुभवगम्य ही है। समुद्र सम गंभीर आचार्य शय्यंभव सूरि जी ने स्वयं को शय्यंभव का अभिन्न मित्र मुनि बताकर बालक को प्रतिबोधित किया। प्रेरणापद उपदेशों को सुन कोमल हृदयी बालक मनक का हृदय भी पिता की भाँति वैराग्य पथ पर बढ़ने को दृढ़ हुआ। बालक मनक को उपाश्रय आ जाने पर जब यह ज्ञात हुआ कि वे ही आचार्य शय्यंभव हैं, उसने उनसे निवेदन
महावीर पाट परम्परा
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