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4. आचार्य श्रीमद् शय्यंभव सूरीश्वर जी
भवभीरू भट्ट शय्यंभव, ज्ञान गंगा द्वार।
आत्मयज्ञ में कषाय आहुति, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर स्वामी जी के चौथे पट्टधररत्न आचार्य श्री शय्यंभव सूरि जी का जीवन ब्राह्मण संस्कृति से श्रमण संस्कृति में प्रवेश की प्रेरणा का प्रबल उदाहरण है। पूर्वज्ञान से नियूंढ सूत्र रचना का प्रारंभ कर 'श्री दशवैकालिक सूत्र" जैसी अनुपम श्रुतकृति की रचना उनके अध्यात्म ज्ञान के ऊर्ध्वारोहण का प्रतिबिम्ब है। जन्म एवं दीक्षा :
- राजगृह नगरी के वत्स गौत्रीय परिवार में वी.नि. 36 (वि.पू. 434) में शय्यंभव भट्ट का जन्म हुआ। वेद-वेदांगों का अध्ययन करके वो विशिष्ट विद्वान बने। युवा अवस्था में उनका विवाह सम्पन्न हुआ। उनका शारीरिक बल सुदृढ़ एवं दैहिक रूप नयनरम्य था। यज्ञ एवं उसके द्वारा मंत्रोच्चार साधना में उसे अटूट श्रद्धा थी। शय्यंभव की बौद्धिक क्षमता भी तेजस्वी थी। यद्यपि वे जैनधर्म के द्वेषी थे, किंतु फिर भी उन्हें व्यामोह न था। वे मानते थे कि तपस्वी जैन मुनि कभी झूठ नहीं बोलते।
भगवान् महावीर के तीसरे पट्टधर आचार्य प्रभव स्वामी जी ने अपने ज्ञान ने देखा कि यदि शय्यंभव ब्राह्मण की योग्यता को सही दिशा दी जाए, तो वह जैन संघ का देदीप्यमान सूर्य प्रमाणित होगा। उन्होंने युक्तिबद्ध तरीके से ब्राह्मण शय्यंभव जी को प्रतिबोधित किया। यज्ञ के मंडप के नीचे शांतिनाथ जी की प्रतिमा देखकर शय्यंभव भट्ट को वीतराग जिनेश्वर देव पर अनुराग हुआ। __श्रुतकेवली आचार्य प्रभव स्वामी जी ने उन्हें जैन धर्म दर्शन का यथार्थ ज्ञान देकर जैन धर्म शासन में सम्मिलित किया। 28 वर्ष की वय में उन्होंने प्रभव स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर श्रमण दीक्षा ग्रहण की। शय्यंभव जब वी.नि. 64 दीक्षित हुए, तब उनकी नवयुवती पत्नी गर्भवती थी, किन्तु सभी आसक्तियों का त्याग कर शय्यंभव आत्मसाधना के उत्कृष्ट उद्देश्य से श्रमण संघ में प्रविष्ट हुए।
महावीर पाट परम्परा
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