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________________ हर्षोल्लास पूर्वक प्रचार हुआ किन्तु यह दृश्य देखकर उनके सद्गुरु आचार्य प्रद्योतन सूरि जी को उनकी आत्मा की चिन्ता हुई। इस ऋद्धि से मानदेव चारित्र से भ्रष्ट हो जाएगा। ऐसे दुर्विचार से प्रद्योतन सूरि जी खिन्न रहने लगे। आचार्य मानदेव भी बुद्धिमान थे। अपने गुरु की मनोवेदना वे समझ गए। अपने गुरु की चित्त शांति के लिए उन्होंने उनके आगे ऐसा नियम लिया कि “ भक्ति वाले गृहस्थ के घर की भिक्षा नहीं लूंगा । अज्ञात कुल की ही गोचरी लूंगा एवं दूध, दही, घी, मीठा, तेल इत्यादि विगयों का आजीवन त्याग करूँगा।" प्रद्योतन सूरि जी को आ. मानदेव सूरि जी के इस निर्णय पर बहुत प्रसन्नता हुई एवं वे उनके निरतिचार संयम को लेकर आश्वस्त हुए। आ. मानदेव सूरि जी के विशुद्ध तप एवं उत्कृष्ट संयम के प्रभाव से 1. पद्मा, 2. जया, 3. विजया, 4. अपराजिता ये चार देवियाँ उनके सानिध्य में रहती थी एवं प्रतिदिन उनको वन्दन करने आती थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सर्वत्र हो गई। - उन्होंने सिंध तथा पंजाब प्रदेश में भी विहार किया । उच्च नगर ( तक्षशिला का एक क्षेत्र) देराउल, मारवाड़ इत्यादि क्षेत्रों में विचरण कर सांठा राजपूतों को प्रतिबोध देकर उन्हें ओसवाल जैन बनाया। मानदेव सूरि जी ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र युक्त संयम से धर्म की महती प्रभावना की एवं 'जैनम् जयति शासनम्' का सर्वत्र उद्घोष कराया। लघु शांति की रचना : पंजाब की सरहद पर तक्षशिला नामक नगरी थी। वह जैन संस्कृति का बहुत बड़ा केन्द्र था। वहाँ जैनों के 500 मंदिर तथा लाखों जैन परिवार बसे थे। सदैव परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं रहती। तक्षशिला जैसी सुंदर नगरी में 'मरकी' का उपद्रव हो गया। इस व्याधि के कारण हजारों मनुष्यों की मृत्यु हो गई । दिन-प्रतिदिन लाशों का ढेर बढ़ता जा रहा था। ऐसे विषम संकट के समय तक्षशिला के जैन संघ ने मंदिर में इकट्ठे होकर विचार चर्चा की। उन्होंने चिंतन किया कि सुख-शांति - अनुष्ठान - पर्वों के दिनों में देव - देवियाँ दर्शन भी देते हैं पर आज इस महान संकट के समय में मंदिरों व मनुष्यों के निष्कारण संहार के अवसर पर सब देव-देवी कहाँ चले गये? समूचे श्रीसंघ के इस सन्ताप के प्रभाव से शासनदेवी अदृश्य प्रकट हुई और बोली आप इस प्रकार खेद क्यों करते हो?. रूप महावीर पाट परम्परा 78
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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